Friday 23 November 2012

घुसपैठ


मेरे तन्हा मन पे
निरन्तर होती है
घुसपैठ
तेरी यादों की,
और देर तक
होता है संघर्ष
टूटे ख्वाबों
को लेकर  ,
आखिरकार
पानी ज्यों बहते है
अश्क दोनों के, 
क्यों ना हम
मिलकर एक
समझौता करें, की ,
उधर तुम ,
अपनी यादों को
बांध के रखो ,
और इधर में,
करता हूँ कोशिश
बहलाने की,
इस  मासूम
दिल को।   

"विक्रम"

16 comments:

  1. बहुत सुन्‍दर विक्रम जी ''मेरे तन्‍हा दिल पर होती घुसपैठ'' । अच्‍छी है आपकी लिखी पंक्तियां

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  2. यादों को ही तो नहीं बंधा जा सकता .... सुंदर अभिव्यक्ति

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  3. मेरे तन्हा मन में
    निरन्तर होती है घुसपैठ
    तेरी यादों की,
    और देर तक होता है संघर्ष
    टूटे ख्वाबों को लेकर …
    आखिरकार
    पानी ज्यों बहते है अश्क दोनों के…


    बहुत सुंदर विक्रम जी !

    बेहतरीन !
    संवेदनशील रचना !
    वाऽह ! क्या बात है !

    …आपकी लेखनी से सुंदर रचनाओं का सृजन ऐसे ही होता रहे …
    शुभकामनाओं सहित…

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  4. बहुत सुंदर....काश यादों को बांधा जा सकता ।

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  5. वाह...
    बहुत सुन्दर...
    कोमल सी कविता..

    सादर
    अनु

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  6. बहुत बढ़िया रचना

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  7. कोमल भाव की रचना...
    अति उत्तम प्रस्तुति....
    :-)

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  8. बहुत सुंदर भाव ....सुंदर रचना ....!!

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  9. उधर तुम ,
    अपनी यादों को
    बांध के रखो ,
    और इधर में,
    करता हूँ कोशिश
    बहलाने की,
    इस मासूम
    दिल को।


    अहा ये नाजुक सी कविता ।

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  10. बहुत खूब ... पर यादें किसके रोके रूकती हैं ...
    चली आती हैं बिन बुलाये बिन भेजे ...

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  11. कोशिश तो कर लेंगे पर सफलता इतनी आसान नहीं होगी दिल को बहलाने की :)

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  12. bahut khoob likha hai aapne,
    vivek jain,

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  13. करता हूँ कोशिश
    बहलाने की,
    इस मासूम
    दिल को।

    क्‍या बात है। बहुत ही सुन्‍दर रचना।

    शुभकामनाओं सहित आपका संजय सिंह जादौन

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