Tuesday 31 December 2013

सोचता हूँ नेता बन जाऊं !


एक मुहावरा है  "कीड़ा काटना " ये किसी  पुस्तक में है या  नहीं पता हीं  मगर जब कोई इंसान उलटे सीधे  काम करने  की सोचता है तो कहते हैं की उसको "कीड़ा काट"  रहा है।  खैर , में अपने  कीड़े  की बात बताता   हूँ । मुझे   कल ही ख्याल  आया की नेता बन जाऊं । अब ये  आपकी   नजर   में   कीड़ा काटना  हो सकता  है   मगर  मेरा ख्याल  था । नेता बनने  के लिए   लोगों के   वोट बटोरनादूसरा पायदान है ।  पहले पायदान के बारें में मैं निचे लिखूंगा । जहाँ   तक वोट बटोरने  बात है तो फेसबूक, गूगल+ वाहट्सअप्प्स  जैसे  निर्वाचन क्षेत्रों से 3000 दोस्तों का जुगाड़  करके रखा है ।  वैसे तो 3000 से ज्यादा है मगर सभी मेरे बहकावे में आयें ये भी तो जरुरी नहीं ।
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खैर जब नेता बनने का सोच ही लिया तो और वोटों का जुगाड़ भी हो  ही जायेगा । हर नेता को वोटों का  पहलेसे ही जोड़ भाग करके हिसाब रखना जरुरी होता है ।   क्योंकि यही एक पोस्ट है जिसकेलिए  ज्यादा पढ़े  लिखे होने की जरुरत नहीं और ना ही कहीं आपको अपना बायोडाटा भेजनाइंटरव्यू  में उटपटांग  सवालों का सामना करना। मगर ऐसा नहीं की कोई भी ऐरा गैर नाथू खैरा नेता बन सकता है , इसके लिए आप में बहुत कुछ औरों से हटकर होना चाहिए। एक सफल नेता बनने के लिए आप में न्यूनतम योग्यताओं का बेहद जरुरी है ।साथ में कुछ बहुमूल्य सुझाव भी बोनस स्वरूप प्रस्तुत  हैं ।


 १. एक दर्जन कोर्ट केस जिसमे चोरी-डकैती , हत्या, बलात्कार,और पाकेटमारी जैसी उपलब्धियां
    शामिल हों उसे विशेष  प्राथमिकता दी जाती है . 
२. इंसानियत या भलमनसाहत नामक हार्मोन्स  की आपके शरीर में सदैव कमी बनी रहना .
३. शराब और शबाब  आपकी शख्सियत के मुख्य केंद्र बिंदु होने चाहिए .
४.  हमेशा मुर्दे के कफन जैसे रंग वाले सफ़ेद कपडे पहनें , सिर में अन्ना टोपी जरूर लगाये ताकि  कोई
     मुर्दा समझ दफ़न ना करदे
५.  जहाँ भी जाएँ चमचों की फौज साथ में रखें , ये बहुत काम के प्राणी होते हैं, कबीर ने  भी इनकी
      सिफ़ारिश की थी  और कहा था की  "निंदक नियरे राखिये ..."
६. जो भी आपसे से खफा होंऔर लगे  की ये  आपकी दाल नहीं गलने देंगे तो सबसे पहले उन्हे पटाकर
     रखें,क्योंकि दुश्मनी जैसी आदत ना पालें।  क्योंकि ह्त्या जैसे केस मे  पकड़े जाने पर आपकी लुटिया
      जल्दी डूबने का डर बना रहता है ।  
७. नेता बनने से  पहले आपको तेल मालिश ,घूसखोरी ,दल-बदलूझूठे- वायदेफिजूल खर्ची  में चार
    साल  का  स्नातकोत्तर  पाठ्यक्रम पूर्ण करना अनिवार्य है ।

इन सबके अलावा भी हजारों खास ऐसे गुण  आप में   होने चाहिए  अगर आप के उच्च दर्जे के नेता बनने का शौक रखते हैं तो । खैर एक बार शुरुवात करेंगे तो ये गुण आप में  समय के साथ अपने आप आ जायेंगे । आप अपना करियर पहले एक  टपोरी और बादमें एक छुट या नेता के तौर पे शुरू कर सकते है। वैसे भी आजकल काफी युवा  इस "धंधे" की तरफ खिचे चले आ रहे हैं। इसका हालिया उदाहरण "आप" पार्टी वाले हैं ।  लेकिन आज इस व्यवसाय पर 80% खूसट बुड्ढे सांप की तरह कुंडली मारके बैठे हैं जो युवाओं को जगह नहीं दे रहे हैं 

लेकिन फिर भी आप परेशान  ना हों , क्योंकि   नेता   का   पहला   उसूल है की खुद कभी  परेशान ना ह हमेशा औरों को बराबर उंगली करके परेशान करे। वैसे नेता का कार्यकाल निश्चित नहीं है ,मगरकमाई के मामले में एक दो साल में ही करोडपती से अरबपती तक बना जा  सकता है | हाल ही के उदाहरण मेरे इसविचार की पुष्टि करते हैं ।  खैर जाने दीजिये बहुत हो गया , अब मतलब की बात पे आता  हूँ  " अपना अमूल्य वोट मुझे ही  दीजिये "
-विक्रम
    





   


Wednesday 25 December 2013

याद आता है ....

हल्की गर्मियों की
शीतल अंधेरी भोर में
माँ का आँगन में
मेरे सिरहाने बैठना ,
अपनी मथनी बांधना ,
और दही से
मक्खन निकालना...... याद आता है

मंथन के  संगीत का
मेरे कानों मे
देर तक बजना  ,
आरोह अवरोह  
के दरम्यान  
मंथन की लय का
बनना बिगड़ना
और फिर छाछ पे
मक्खन का छाना...... याद आता है ।

मक्खन आने की
सुगबुगाहट पर ,     
माँ के पास बैठकर    
बिलोने मे झांकना
और फिर माँ का
मुस्करा कर,
ठंडी- ठंडी
मक्खन की डलियाँ
मेरे मुंह मे रखना ....... याद आता है ।


"विक्रम"


Saturday 21 December 2013

तन्हा सा लम्हा

परछती के तिमिर
तन्हा से कोने मे
शिथिल श्लथ    
एक अधूरा सा लम्हा...
है प्रस्फुटन के लिए
व्याकुल सा...
 
जब कभी झुलसाती है
विरह की उष्णता
तब.. मुझे
पड़ता है  संभालना
रखकर    
तरबतर, चक्षुजल से,
उस अधूरे लम्हे को...
 
मेरे ख़्वाबों में लुप्तप्राय –सा  
वो अतीत   
वो नैसर्गिक लावण्य
वो उद्धत तरुणाई
स्पर्श को ललचाता    
मृदुल  कटि सौंदर्य ...
सब सोचकर है
हतोत्साहित लम्हा ।
 
-विक्रम

Saturday 23 November 2013

वक़्त


वक़्त आज भी उस खिड़की 
पे सहमा सा खड़ा है

भुला कर अपनी
  
गतिशीलता की प्रवर्ती

जिसके दम पर
 
दौड़ा करता था... सरपट
 
और...

फिसलता रहता था मुट्ठी 
में बंद रेत की मानिंद ।


शामें भी उदासियाँ ओढ़े
,
बैठी रहती है उस राहगुजर के
 
दोनों तरफ
, जिनके दरमियाँ  
मसलसल गुजरती
  रहती  हैं 
स्तब्ध
, तन्हा ,व्याकुल  रातें

अलसाई-सी भौर
 
भी अब
रहती है ऊँघी
, बेसुध,अनमनी-सी

वो उन्माद भी मुतमईन-सा है
   
जो बेचैन
,बेसब्र सा रहता था 
धूप से नहाई दोपहरी मे ।


 
- “विक्रम”

Sunday 20 October 2013

मुसाफ़िर


ट्रेन से उतरते ही विजय को एक भिखारी औरत ने कोहनी से धक्का दिया, और फिर उसके पीछे पीछे मजदूर से दिखने वाले  एक  शख्स ने धक्का देने वाली भिखारी औरत को ज़ोर से धक्का मारा जिस से वो मुँह के बल गिरी। विजय उस शख्स को कुछ कह पाता उस से पहले ही वह विजय का सामान उठाते हुये बोल पड़ा ,”कहाँ जाना है साहब ? बस अड्डे या धर्मशाला ? आइये तांगा बाहर खड़ा है  
स्टेशन पर ज्यादा भीड़ नहीं थी, उतरने वाले मुसाफिरों मे  विजय और इक्का दुक्का पैसेंजर ही थे। यहाँ दिनभर मे दो तीन ट्रेन ही आती थी। सुंदरगढ़ एक पहाड़ी स्टेशन था जहां सिर्फ गर्मियों मे ही सैलानी आते थे इसलिए  सर्दियों मे प्राय सन्नाटा ही पसरा रहता था।       
“लेकिन तुमने उसे इतने ज़ोर से धक्का क्यों मारा ?”, विजय ने मुँह के बल गिरी उस भिखारी औरत की तरफ इशारा करते हुये गुस्से में धक्का देने वाले शख्स से पूछा। विजय ने एक पल उस मैले-कुचेले कपड़े पहने  औरत की तरफ  देखा और बाद में कुछ सोचते हुये उस शख्स  के पीछे पीछे चल पड़ा जो उसका सामान उठाए बाहर की तरफ जा रहा था।
गिरने वाली भिखारी औरत ने अपनी फटी हुई गंदी सी शॉल को संभाला  और  उन दोनों की तरफ देखते हुये बड़बड़ाने लगी ।
विजय पलट पलट कर उस भिखारी औरत की तरफ  देखता जा  रहा था  जो लगातार उसी  तरफ देखकर कुछ बड़बड़ाए जा रही थी।
तांगा धर्मशाला के सामने रुक गया, विजय ने तांगे वाले को पैसे देते हुये पूछा ,”कौन थी वो भिखारी औरत ?”
“अरे साहब वो पगली है , स्टेशन पर हर आने वाली मुसाफिर के ऐसे ही पीछे पड़ी रहती है । “
“हूँ”
विजय ने धर्मशाला मे अपने लिए कमरा लिया और अपना सामान कमरे मे रखकर अंधेरा होने से पहले शहर मे घूमने का इरादा कर धर्मशाला से बाहर आ गया । आज पच्चीस साल के लंबे अंतराल के बाद भी सुंदरगढ़ मे कोई खास तब्दीली नहीं आई थी। सड़के आज भी वैसी ही टूटी-फूटी और बाजार मे सड़क के किनारे वही पहले की तरह सामान बेचने वालों रेहड़ी और ठेले वालों की भीड़ । हाँ कुछ बड़ी दुकाने और मॉल जरूर बन गए हैं । विजय टहलता हुआ शोरगुल से दूर एक कॉलेज के सामने जाकर खड़ा हो गया। वर्षों पहले इसी कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। बाहर से देखने पर लगता था कॉलेज मे अंदर की तरफ काफी निर्माण हो चुका है। कॉलेज का गेट भी पहले की अपेक्षा बहुत बड़ा बना दिया। कॉलेज के सामने खाली पड़ी जमीन पे अब काफी दुकाने खुल गई थी ।  कुछ देर घूमकर विजय धर्मशाला की तरफ चल पड़ा। रास्ते में उस रेस्टोरेस्ट के सामने ठिठक क रुक गया और फिर कुछ सोचकर अंदर चला गया। विजय अपनी उसी जानी पहचानी टेबल की तरफ बढ़ गया जहां कभी मधु के साथ  बैठकर हसीं सपने बुने थे । रेस्टोरेन्ट के काउंटर पर पच्चीस छब्बीस साल का एक नौजवान बैठा था। विजय की नजरें काउंटर के आस पास  मदन नामक उस शक्स को ढूंढ रही थी जो उन दिनों रेस्टोरेन्ट का मालिक हुआ करता था । उन दिनों मदन की उम्र भी लगभग उस नौजवान जितनी ही रही होगी , यानि उन दिनों विजय और मदन लगभग हमउम्र थे इसलिए  विजय की उस से अच्छी जान पहचान थी। विजय , मदन और मधु अक्सर बैठकर बातें करते थे। चाय पीकर काउंटर पर पैसे देते वक्त विजय ने काउंटर के उस तरफ बैठे नौजवान  से मदन के बारे मे पूछा ।
“यहाँ पहले मदन पारिक जी बैठा करते थे “, विजय ने पूछा ।
“जी... , हाँ  अंकल वो मेरे पापा है ,दोपहर तक वो काउंटर संभालते हैं और उसके बाद में  , आप कैसे जानते हैं पापा को ? पहले कभी देखा नहीं आपको ?”
“हाँ, वो पहले में अक्सर यहाँ आता था , बहुत साल पहले ... लगभग पच्चीस साल पहले की बात है..“
  “ओहो.... बहुत लंबा अरसा हो गया अंकल फिर तो आपको पापा से मिले, अब आप एक दूसरे को पहचान भी पाओगे ?”, नौजवान ने हँसकर पूछा ।
“सायद”, विजय ने मुस्करा कर कहा और फिर कभी आने का वादा कर धर्मशाला की तरफ चल दिया ।
विजय रातभर मधु के बारे मे सोचता रहा । पच्चीस साल पहले का वो दृश्य उसकी आंखो के सामने किसी चलचित्र की भांति तैरने  लगा । उस वक़्त ज़ुदा होने से पहले मधु उस से लिपट कर बहुत रोई थी। उसने ये कहकर मधु को सांत्वना दी की वो आगे की पढ़ाई के लिए भी यहीं दाखिला लेगा और दो महीने के भीतर ही  वापिस आयेगा । मधु उसे विदा करने स्टेशन पर साथ आई थी । उस दिन  मधु का खिला खिला चेहरा बिलकुल बुझ-सा गया था। गाड़ी छूटने के साथ ही मधु की आँखों से अश्रुधारा बह निकली। विजय का हाथ थामे वो कुछ देर ट्रेन के साथ चलती रही, फिर ट्रेन के रफ्तार पकड़ने पर विजय ने उसके हाथ को चूमा  और अपना ख्याल रखने का वादा कर हाथ छुड़ा लिया । मधु का हाथ अब भी हवा मे था , वो देर तक ट्रेन के दरवाजे पर खड़ी विजय को निहारती रही जो खुद भी अपने आँसू पोंछ रहा था और मधु की तरफ हाथ हिला रहा था । वक़्त के क्रूर चेहरे पर  क्रूरता और गहरा गई थी ।

विजय उसके बाद फिर पलटकर अपने उन पनपते ख्वाबों को पूरा करने फिर ना आ सका। पारिवारिक कारणों से उसने अपने ख्वाब वक़्त के हाथों तबाह होने के लिए छोड़ दिये। मगर इतने लंबे अरसे बाद भी विजय उस बिछोह का दर्द भुला नहीं पाया था और आज उस दर्द से निजात पाने फिर से वहीं आ गया था जहां से ज़िंदगी के मायने  उसके लिए बदल गये थे ।
अगले चार से पाँच दिन मधु के मिलने की सभी संभावित जगहों को छान मारा मगर कोई सफलता नहीं मिली। मधु से मिलकर वो अपने किए की माफी मांगना चाहता था । मधु का परिवार अब उस घर मे नहीं था जहां वो उन दिनों रहते थे। मधु के मिलने की उम्मीद तो उसे पहले भी कम ही थी। वो जानता था की इतने दिनों तक भला कैसे कोई किसी के इंतज़ार मे बैठा रह सकता था। मगर उसका दिल ना जाने क्यों मधु के मिलने की आस पाले बैठा था। आखिरकार थक हारकर विजय ने वापिस गाँव जाने का इरादा किया और वापिस जाने से पहले एक बार मदन से मिलने का निश्चय किया।   
 दूसरे दिन सुबह वापिस अपने गाँव चलने की तैयारी में अपना सूटकेस उठाया और स्टेशन की तरफ चल पड़ा। रास्ते मे मदन के रेस्टोरेन्ट मे पहुँच मदन के बारे मे पूछा तो उसके बेटे  ने कहा ,”अंकल पापा आज नहीं आए। रविवार को में ही पूरा दिन रेस्टोरेन्ट  संभालता हूँ। आप कल इसी वक़्त आइये उस वक़्त पापा आपको जरूर मिलेंगे । “
“ओहो ...नहीं, कल तो में नहीं आ पाऊँगा , में आज वापिस जा रहा हूँ, एक काम करो बेटे , मुझे अपने पापा का मोबाइल नंबर दो में उनसे फुर्सत मे बात कर लूँगा। “ , मदन के बेटे से मदन के मोबाइल नंबर लेकर विजय स्टेशन की तरफ चल पड़ा। रास्ते भर वो सोचता रहा की काश उन दिनों मे भी मोबाइल होता तो आज मे मधु को यूँ न खोता ।
स्टेशन पर पहुँचने के बाद उस स्थान को देखकर ठिठक गया जहां मधु उस से बिछुड़ गई थी। वो आस पास देखकर उस जगह का सही अंदाजा लगाने लगा । स्टेशन पहले की अपेक्षा  काफी बड़ा बना दिया गया था। तभी ट्रेन ने प्लेटफार्म पर आने का संकेत दिया तो विजय  ने चौंककर उस तरफ देखा और अपना सूटकेस संभाले फिर से उस शहर से विदा लेने भारी  कदमों से ट्रेन की तरफ बढ़ गया । कुछ देर बाद ट्रेन पटरियों पर रेंगने लगी । विजय ट्रेन के दरवाजे पे आकर खड़ा हो गया और पीछे छूटते प्लेटफार्म को देखकर बरसों पहले जुदाई के उस मज़र को याद कर फफक कर रो पड़ा ।
गाँव पहुँच एक दिन विजय को मदन की याद आई तो उसने बात करने लिए उसका नंबर डायल किया। दूसरी तरफ से आवाज आने पर विजय ने पूछा।
“क्या में मदन पारिक जी से बात कर सकता हूँ ?”
“जी, हाँ बोलिए , में ही मदन पारिक हूँ”, दूसरी तरफ से आवाज आई ।
“मदन !, में .... में विजय ... विजय राज़दान ..... पहचाना ?” दूसरी तरफ से कोई उत्तर नहीं मिलने पर विजय ने दुबारा कहा ।
“ मैं विजय राज़दान .... आज से करीब पच्चीस साल पहले आपके रेस्टोरेन्ट मे था .... मधु और में अक्सर आपके रेस्टोरेन्ट मे आते थे ,आप मैं और मधु  तीनों अक्सर बैठकर बातें करते थे । “
“हाँ... हाँ ...विजय  .. अरे  ! तुम कहाँ हो , कहाँ गायब हो गए थे, और मेरा नंबर कैसे मिला तुम्हें ?”
“ में तुम्हारे रेस्टोरेन्ट मे गया था, तुम से मुलाक़ात तो हो नहीं पाई तुम्हारे बेटे से तुम्हारा नंबर लिया, और कैसे हो यार ? बहुत साल हो गए मिले हुये। “ , विजय ने खुश होते हुये पूछा ।
“हाँ में ठीक हूँ , लेकिन तुम कहाँ गायब हो गए थे ? आए क्यों नहीं ?,मधु की खबर मिली ?”
“मेरे वहाँ वापिस ना आने का कारण तो मुझे खुद भी नहीं पता .... की में क्यों नहीं वहाँ वापिस जा सका , मधु को बहुत ढूंढा , उस से माफी मांगना चाहता था मगर कोई नामोनिशान नहीं मिला उसका। क्या तुम्हें उसकी कोई खबर है ?, विजय ने मायूसी के साथ पूछा ।
“हाँ, तुम्हारे जाने के कुछ साल बाद तक वो तुम्हारे बारे मे पूछने आती थी। मगर पिछले बीस सालों से तो वो ......”, कहते कहते दूसरी तरफ से मदन ने बात बीच मे ही छोड़ दी ।
“क्या ...क्या पिछले बीस साल से ...  कहाँ है वो , उसने शादी कर अपने घर तो बसाया लिया होगा ना ….. खुश तो है ना वो.... अपने पति और बच्चो के साथ....? हमारा मिलन तो सायद हम दोनों की किस्मत मे नहीं था “, कहते कहते विजय की आवाज भर्रा गई ।
“नहीं विजय ... कैसी शादी कैसा घर ....वो तो पिछले बीस सालों से तुम्हारे आने की राह में पागल होकर  स्टेशन पे भिखारी सा जीवन जी रही है । “
- विक्रम
 

शादी-विवाह और मैरिज ।

आज से पचास-पचपन साल पहले शादी-ब्याह की परम्परा कुछ अनूठी हुआ करती थी । बच्चे-बच्चियाँ साथ-साथ खेलते-कूदते कब शादी लायक हो जाते थे , कुछ पता ...