हल्की गर्मियों की
शीतल अंधेरी भोर में
माँ का आँगन में,
मेरे सिरहाने बैठना ,
अपनी मथनी बांधना ,
और दही से
मक्खन निकालना...... याद आता है
देर तक बजना ,
आरोह अवरोह
के दरम्यान
मंथन की लय का
बनना बिगड़ना
और फिर छाछ पे
मक्खन का छाना...... याद आता है ।
माँ के पास बैठकर
बिलोने मे झांकना
और फिर माँ का
मुस्करा कर,
ठंडी- ठंडी
मक्खन की डलियाँ
मेरे मुंह मे रखना ....... याद आता है ।
"विक्रम"
शीतल अंधेरी भोर में
माँ का आँगन में,
मेरे सिरहाने बैठना ,
अपनी मथनी बांधना ,
और दही से
मक्खन निकालना...... याद आता है
मंथन के संगीत का
मेरे कानों मेदेर तक बजना ,
आरोह अवरोह
के दरम्यान
मंथन की लय का
बनना बिगड़ना
और फिर छाछ पे
मक्खन का छाना...... याद आता है ।
मक्खन आने की
सुगबुगाहट पर , माँ के पास बैठकर
बिलोने मे झांकना
और फिर माँ का
मुस्करा कर,
ठंडी- ठंडी
मक्खन की डलियाँ
मेरे मुंह मे रखना ....... याद आता है ।
हमे भी याद आता है जब कभी बटर लेने दुकान जाते है तो माँ के हाथ का मक्खन याद आ जाता है
ReplyDeleteसुदर भाव है
बहुत सुंदर !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्यारी रचना। .....
ReplyDeleteबहुत मीठी कविता..!
ReplyDeleteसफ़ेद मक्खन और माँ का साथ ... कई पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं ...
ReplyDeleteनव वर्ष की मंगल कामनाएं ...
बहुत बढ़िया प्रस्तुति...आप को मेरी ओर से नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@एक प्यार भरा नग़मा:-तुमसे कोई गिला नहीं है