Sunday 23 August 2015

मिलन

स्टेशन से उतरते ही विजय ने बाहर आकर एक होटल मे अपना समान पटका और तेज़ कदमों से रेलवे की उस कॉलोनी की तरफ बढ़ने लगा जहां आज से 10 साल पहले रहता था। शहर काफी बदल चुका था । स्टेशन से रेलवे कॉलोनी तक का फासला तकरीबन डेढ से दो किलोमीटर है। उन दिनों यहाँ इतनी चहल पहल नहीं हुआ करती थी । सुनसान सी एक कच्ची सड़क हुआ करती थी । आज तो यहाँ रेलवे लाइन के साथ साथ एक सड़क भी बन गई है जिसपे वाहनों की अच्छी ख़ासी भीड़ हैं।
क्या रंजना और उसका परिवार आज तक उसी क्वार्टर मे होंगे ?,”विजय सोचता हुआ लगभग दौड़ता हुआ उस तरफ बढ़ा जा रहा था।

कॉलेज के दिनों मे यहाँ पढ़ने आए विजय को रंजना से प्यार हो गया था। दोनों एक दूसरे को घंटों निहारा करते मगर दोनों मे से किसी ने कभी इज़हार नहीं किया। वक़्त बदला और कुछ पारिवारिक दिक्कतों के चलते विजय वापिस अपने गाँव आ गया। वक़्त ने एक लंबी करवट ली और रंजना उस से बहुत दूर निकल गई। मगर पहला प्यार उसे रह रहकर याद दिलाता रहा की कोई आज भी उसके इंतज़ार मे हैं । दिल के हाथों मजबूर विजय के कदम आज यकायक  उसे यहाँ ले आए।      

विजय ने हाँफते हुये कॉलोनी मे प्रवेश किया। अब कॉलोनी को एक चारदीवारी से घेर दिया था,शहर की तरफ आने जाने का  वो कच्चा रास्ता कहीं गायब हो चुका था। पहले वो रंजना के घर के सामने से दो तीन बार गुजरा तो उसे एहसास हो गया की वहाँ अब वो लोग नहीं हैं। उस क्वार्टर मे और logही रहते लगे थे । उसके बाद वो अपने उस क्वार्टर की तरफ बढ़ गया जहां वो उन दिनों रहता था , हो सकता है उसके सामने वाले क्वार्टर मे रहने वाली रंजना की सहेली दुर्गा से रंजना के बारे मे कुछ खबर मिल जाए। मगर वहाँ भी उसके हाथ मायूसी ही लगी । दुर्गा और उसका परिवार भी वो मकान छोड़ चुके थे। उसके पहले प्यार की गवाह वो कॉलोनी आज वीरान हो चुकी थी । दिनभर यहाँ वहाँ भटकने के बाद भी उसे रंजना की कोई खबर नहीं मिली।

शाम होते होते वो निढाल कदमों से अपने होटल की तरफ बढ्ने लगा। उसके पैर उसका साथ नहीं दे रहे थे। कॉलोनी से करीब आधा किलोमीटर वापिस आते वक़्त वो काफी थक चुका था और वही रेलवे फाटक के पास सड़क के किनारे एक पुलिया की दीवार पर सुस्ताने बैठ गया। यहाँ पर अब आस पास काफी मकान बन चुके थे मगर उन दिनों यहाँ सुनसान कच्चा रास्ता हुआ करता था जिस पर कभी कभार कॉलेज आते जाते वक़्त उसकी रंजना से आँखें चार हो जाती थी । रंजना के साथ उसकी कुछ सहेलियाँ होती थी और वो उनसे नज़रें बचाकर विजय को निहार लेती और फिर थोड़ा मुस्कराकर और शरमाकर  नज़रें झुका लेती थी। बस यही प्रेमकहानी थी उनकी।  

शाम का धुंधलका घिरने लगा था।

तभी सामने से आती एक महिला को देखकर विजय को कुछ एहसास हुआ। एक पल महिला ने भी विजय को देखा। दोनों ने एक दूसरे को देखा और कुछ याद करने की कोशिश करने लगे।
“नहीं ये तो नहीं है “, विजय ने मन ही मन सोचा।

“रंजना...”
महिला ठिठक कर रुकी ।
“जी”
आ..आपका नाम रंजना है ?
“जी हाँ...आप .... विजय ?”

“हाँ...कैसी हो ? मेरा मतलब कैसी है आप ? ,विजय की आवाज भरभरा गई थी। दोनों ने पहली बार एक दूसरे की आवाज सुनी थी। आज आँखें खामोशी से बर्षों की पीड़ा बहा रही थी मगर जुबां से बर्षों की कमी पूरी कर रही थी ।  दोनों ने एक दूसरे से ढेरों बात की,गिले-शिकवों  का  लंबा दौर चला और फिर कल इसी वक़्त फिर से मिलने का वादा कर बर्षों के बिछुड़े प्रेमी एक दूसरे से फिर जुदा हो गए।
विजय रंजना को जाते हुये देखता रहा,रंजना ने पीछे मुड़कर विजय की तरफ हाथ हिलाया और पास के एक मकान मे चली गई।  विजय मुस्कराता हुआ अपने होटल की तरफ बढ़ गया।

दूसरे दिन विजय शहर मे घूमने निकल गया ,वो आज उन सारी पुरानी जगहों को देख लेना चाहता था जो उसने अपने कॉलेज लाइफ के समय देखा था। कॉलेज के सामने मदन चायवाले की दुकान भी गायब थी। कॉलेज के सामने की सड़क पर पंजाबी हलवाई की मिट्ठी लस्सी की दुकान अब एक अच्छे खासे रेस्टोरेन्ट मे बदल गई थी। शाम ढलने पर उसे रंजना से मिलना हैं इस विचार से वो रोमांचित था। मगर अभी शाम होने मे काफी समय था।  वक़्त गुजारने के लिए वो रेस्टोरेन्ट की तरफ बढ़ गया। अपने लिए एक कॉफी का ऑर्डर देकर वो एक खाली पड़े सोफा चेयर पर बैठ गया। रेस्टोरेन्ट मे ज्यादा भीड़भाड़ नहीं थी। पास की चेयर पर बैठे दंपति आपस मे बात करते हुये उसकी तरफ देख रहे थे।

“विजय भैया”, महिला ने पीछे मुड़ते हुये पूछने वाले अंदाज मे कहा ।
“हाँ..”,विजय ने चौंकते हुये जवाब दिया ।
मेँ.. दुर्गा , पहचाना...?”,महिला ने कहा ।
“अरे तुम, कितनी बदल गई हो । तुम्हारी शादी भी हो गई ?”, विजय ने मुस्कराते हुये पूछा।
“हाँ भैया, 2 साल हो गए । मगर आप कहाँ गायब हो गए थे। इतने सालों से आपकी कोई खबर ही नहीं “
“हाँ,मे कुछ बस ऐसे ही किनही हालातों मे फंस गया था। और बताओं तुम कैसी हो। घर मे सब कैसे हैं , तुम्हारे मम्मी-पापा ?”

“सब ठीक है भैया, आइये ना घर चलते हैं यहाँ से पास ही है। मम्मी अक्सर आपका जिक्र करती रहती हैं।“
“फिर कभी , आज रंजना से मिलने का वादा किया है । कल मिला था उस से ,काफी देर बातें हुई”,विजय से मुसकराकर कहा।
“क्या !”, दुर्गा ने चौंकते  हुये कहा ।
“हाँ”,विजय ने फिर मुसकराकर जवाब दिया।
“ले....लेकिन , रंजना तो.....”,कहते हुये दुर्गा खामोश हो गई और अपलक विजय को निहारने लगी। ,”कहाँ देखा आपने उसको ?

“वहीं , रेलवे फाटक के पास”, विजय ने जवाब दिया।
दुर्गा और उसके पति उठकर विजय  के सामने वाली चेयर पर बैठ गए।
“लेकिन भैया.....”, दुर्गा ने विस्फारित आँखों से विजय की तरफ देखा।
“लेकिन क्या ?,विजय ने पूछा।
“रंजना को तो मरे हुये 5 साल हो गए”,दुर्गा ने कहा । 
  “क्या.....!,क्या बात करती हो ? लेकिन मे तो कल मिला उस से , हमने घंटों साथ बैठकर बात की। , विजय ने सम्पूर्ण विश्वास के साथ कहा।
अब तक शाम होने लगी थी।

“चलिये हम  भी चलते हैं आपके साथ वहाँ ,जहां आपने कल उसे देखा। “,रंजना और उसका पति भी विजय के साथ रेलवे फाटक के पास बनी उस पुलिया की तरफ बढ़ चले।
काफी देर बैठने के बाद भी कोई नहीं आया तो विजय परेशान होने लगा। उसने दुर्गा को विश्वास दिलाने वाले अंदाज मे दोहराया की वो कल उस से मिला था। और वो उस सामने वाले घर मे चली गई थी।
“ चलो ना दुर्गा क्योंना हम उसके घर पर चलकर देखलें” ,विजय ने कहा।
“चलो”,दुर्गा ने कहा और तीनों  उस घर की तरफ बढ़ गए।

“आओ बेटी अंदर आओ”, दुर्गा को आया देख एक वृद्ध महिला काफी खुश हुई और उन्हे अंदर बैठाया।
“नमस्ते आंटी, कैसी है आप?”,दुर्गा ने पैर छूते हुये पूछा।
“ठीक हूँ बेटी”

काफी देर बातें हुई। बातों बातों मे रंजना का जिक्र आया तो वृद्ध महिला की आँखों मे आँसू बह निकले।
“रंजू के बिना ये घर खाने को दौड़ता है बेटी”,वृद्धा ने सुबकते हुये कहा।

बाहर आने पर तीनों उसी पुलिया पर बैठकर बातें करने लगे।
“वो रंजना की मम्मी थी”, दुर्गा ने कहा।

दुर्गा ने बताया की पाँच साल पहले उसी जगह एक एक्सिडेंट मे रंजना की मौत हो गई थी।
“वो आपको बहुत याद करती थी भैया”,कहते हुये दुर्गा सिसकने लगी।
विजय को दुर्गा की आवाज़ दूर से आती हुई महसूस हो रही थी।

उसकी स्तबद्ध आँखें  इधर उधर देखते हुये रंजना को ख़ोज रही थी।



   




  

Saturday 15 August 2015

अधबुने ख़्वाब

वक़्त का बादल
फटकर गुजर गया
हम दोनों के दरमियाँ ..
ले गया बहाकर
अधबुने ख़्वाब और
दे गया अंतहीन दूरिया..
मगर....
तुम इंतज़ार मे रहना ,
में  आऊँगा,
एक दिन लौटकर,
लाऊँगा खोजकर
उन भीगे ख्वाबों को,
ख़यालात, जज़्बात,
और एहसासात की
आंच मे  सुखाकर,
हम फिर से बुनेंगे
वो अधबुने ख़्वाब....


“विक्रम”

शादी-विवाह और मैरिज ।

आज से पचास-पचपन साल पहले शादी-ब्याह की परम्परा कुछ अनूठी हुआ करती थी । बच्चे-बच्चियाँ साथ-साथ खेलते-कूदते कब शादी लायक हो जाते थे , कुछ पता ...