Sunday 16 November 2014

रुका वक़्त


ये वक़्त भी  मुद्दत से उस बंद खिड़की  की मानिंद ठहरा सा है ,
जो कभी मुट्ठी मे बंद रेत सा फिसलता था। अब
हवाओं ने भी, उस खिड़की को दूरियों के
नकाब पहना दिये हैं । अनमनी सी
धूप अक्सर उस खिड़की
पे अब पलभर को
सुसताने चली
आती है ।
बुझी पीली धूप
को एक और खिसका
कर धीरे से आ बैठती है उदास शाम
और फिर खिड़की की जानिब से, सामने वाले
घर के उस बंद दरवाजे को अपलक निहारती है, जिसके पुराने
मरासीम थे कभी उस बंद खिड़की से ,हवा धूप और शाम की तरह.

-विक्रम


शादी-विवाह और मैरिज ।

आज से पचास-पचपन साल पहले शादी-ब्याह की परम्परा कुछ अनूठी हुआ करती थी । बच्चे-बच्चियाँ साथ-साथ खेलते-कूदते कब शादी लायक हो जाते थे , कुछ पता ...