Tuesday 9 July 2013

मास्टर जी (व्यंग)


जब किसी स्कूल के प्रांगण में छोटे बच्चो को मस्ती करते देखता हूँ तो मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ जाते हैं। उन दिनो  हम स्कूल के अंदर नहीं गेट के बाहर या फिर स्कूल के रास्ते के बीच में मस्ती करते थे। उन दिनों हमारे मास्टर जी को किसी कानून का डर नहीं होता था इसलिए स्कूल के अंदर मस्ती करने पर वो हमारी मस्ती जल्द ही उतार देते थे। लेकिन बाहर भी हमे ऐसा करते हुए कोई अध्यापक देख लेते तो, उस वक़्त तो वो कुछ नहीं बोलते थे। मगर क्लास मे होम-वर्क पूरा नहीं होने पर या किसी अन्य कारण मे हमारी धुलाई ये कहते हुए करते थे की, "आजकल बहुत उछल-कूद मचा रखी है तुम लोगों ने, बड़ी चर्बी चढ़ी है तुम सब पे।" इसी तरह पिटते-पिटते हम कुछ बड़े हुये तो हमारी पिटाई का तरीका भी कुछ बड़ा हो गया, क्योंकि कान उमेठना ,चांटा मारना तो अब गुदगुदी-सी फिलिंग देते थे।  

 अब कान पकड़ कर मुर्गा बनाना, शर्ट को पीठ से उठाकर ढीले हाथ से थप्पड़ मारना, सावधान की मुद्रा मे खड़ा कर के गाल पे अचानक घात लगाकर चांटा मारना और उस चांटे से बचने की कोशिश की तो बोनस के तौर पे दो चार चांटे और मिलते थे। कुछ अध्यापक तो थर्ड डिग्री के मास्टर थे।  वो हथेली पे डंडा नहीं मारते थे बल्कि हथेली को उल्टी करवाकर पीछे की तरफ उभरी हुई हड्डियों पे मारते थे और उसके बाद छात्र के चेहरे को गौर से देखते हुए प्रहार से उत्पन्न दर्द की अनुभूति का अंदाज़ा लगाते थे।  अगर दर्द उनकी उम्मीद पे खरा नहीं उतरता था तो ये क्रम तब तक दोहराया जाता जब दर्द खुद शरीर से बाहर आकर चिल्ला चिल्ला के नहीं कह देता की बस!
 

कुछ उम्रदराज अध्यापक गीली बेंत या लकड़ी का उपयोग करते थे, क्योंकि उनके शरीर मे उतनी ऊर्जा नहीं रह गई  थी की वो हम जैसे 25,30 छात्रों  को थप्पड़ से सुधार सकें। वो बेंत हमसे ही किसी पेड़ से तुड़वाते थे और फिर तोड़कर लाई गई लकड़ियों में से अपनी पसंद की लकड़ी छाँटते थे। इसके बाद वो हमे एक लाइन मे खड़ा करवाकर और सबको कहते की अपनी अपनी दोनों हथेलियाँ सामने रखो। सभी लड़को के हाथ प्रसाद लेने की मुद्रा मे हो जाने पर  लाइन के एक सिरे से दूसरे सिरे तक गीली बेंत से हमारी हथेलियों पे हारमोनियम बजाते हुये दूसरे सिरे तक चले जाते। मुझ जैसे शातिर ऐसे मे सुर चुराने की कोशिश करते और अपनी हथेली पीछे खींच लेते। मगर लय बिगड़ने पर तुरंत पकड़ मे आ जाता और फिर मुझे लाइन मेँ अलग से छाँटकर बड़ी तन्मयता से मुझपर तबला वादन का अभ्यास किया जाता।  इस तरह की इकलौती पिटाई मे बाकी छात्र अपना दर्द भूल मेरी पिटाई का लुत्फ उठाते थे

 
मगर हम भी ना जाने उस वक़्त किस मिट्टी के बने थे की पहले पीरियड मे पिटने के बावजूद दूसरे पीरियड मे भी पिटने के लिए बिलकुल तैयार रहते थे। लेकिन ये समझ नहीं आता की उन दिनों हम लोग पढ़ाई मे कमजोर थे, या हमारे अध्यापक कुछ ज्यादा ही पीटने के शौकीन थे, या फिर हमे ही पिटाई का चस्का लग गया था। सबसे शर्मनाक हालात तब पैदा होते जब कोई एक मार खाता था, क्योंकि पिटाई के बाद पूरी क्लास फिर उसका जमकर मज़ाक उड़ाती थी। मगर ये खुशी भी बहुत अल्प होती थी और कुछ समय बाद वो हंसने वाले लड़के गीली बेंत से अपनी कठोर त्वचा को मुलायम करवाते नजर आते थे। मगर इतनी धुनाई के बाद भी हमारे मास्टर जी ने, आज के टीचर की तरह हमे अपाहिज नहीं किया। उनकी पिटाई आज भी हमारा मार्गदर्शन करती है।  

 
- विक्रम
   

   

 

13 comments:

  1. वाकई स्कुल के दिनों की याद दिला दी आपनें !!

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  2. कुछ ज्यादा ही पिटाई हुई ....

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  3. कुछ भी हो पीटने के बाद भी वह समय जीवन का सबसे सुखद समय था:)

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  4. आज के टाइम मे ना तो ऐसे मास्टर जी है ओर ना ही विधार्थी
    आज अगर कोई मास्टर विधार्थी को डरा भी दे तो पुलिस केस कर देते है
    पर जो भी आपने तो स्कूल के दिन याद दिला दिया है दादा

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  5. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन चर्चा मे है मेट्रो - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  6. अपने को भी बहुत अनुभव है, डस्टर से भी अच्छी लगती थी.. और चॉक से फ़ेंककर मास्स्साब मारते थे ।

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  7. हा हा हा हा .... मुझे अपने पुराने दिन याद आ गए | बहुत खूब लिखा | बेहतरीन |

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  8. बचपन के दिन को अच्छा याद किया.... अच्छी प्रस्तुति!!

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  9. ये आपने सच कहा ... उनकी पिटाई और उनके पढाने के तरीके आज भी जेहन से जाते नहीं ... मन को गुदगुदाते हैं वो बचपन के पल ....

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  10. क्या यह पिटाई उचित कही जा सकती थी? छोटी उम्र में प्यार से ज्यादा सिखाया जा सकता है, मार की बजाय...

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  11. हमारी स्कूल में भी मास्टर इंद्रसिंह जी शेखावत पढ़ाई में होशियार लड़कों को कोई गलती पकड़ ठोकने की तलाश में रहते थे! राजपूत जाति के छात्र तो उनकी ठुकाई के विशेष निशाने पर रहते थे| उनकी नजर में पढ़ाई के लिए ठुकाई करना भविष्य की नींव मजबूत करना था, स्वजातीय छात्रों की पिटाई कर उनकी नींव मजबूत करना उनकी सामाजिक सेवा का एक अंग था :)

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