Tuesday 31 January 2017

उड़ना पृथ्वीराज

अब तक मेवाड़ की कोख से जन्म राणा कुंभा राणा सांगा और राणा प्रताप को ही सब ने पढ़ा और सुना किन्तु इसी वंश में एक और महान् पराक्रमी प्रतिभा हुई जो पृथ्वीराज के नाम से इतिहास के अदृश्य पृष्ठों में विख्यात है। पृथ्वीराज राणा रायमल के सब से बड़े पुत्र थे।

 पृथ्वीराज ने बड़े कुंवर होने के नाते प्रारम्भ से ही मेवाड़ पर होने वाले तत्कालीन अनेक संकटों में अपने पिता की सहायता की और मेवाड़ का मान बढ़ाया। पृथ्वीराज शत्रु से कभी भी नम्रता पूर्वक बातचीत करने में विश्वास नहीं रखता था। पृथ्वीराज ने अभी युवावस्था में पैर रखा ही था। उस समय मेवाड़ को मांडू का सुल्तान गयास शाह आये दिन परेशान कर रहा था। एक दिन मेवाड़ के महाराणा सुलह की बात के लिये सुल्तान के एक दूत से बातचीत कर रहे थे, भाग्य से कुंवर पृथ्वीराज वहां जा पहुँचा। महाराणा को इस प्रकार सुलह व नम्रतापूर्वक बातचीत करते हुए देखकर वह कुद्ध हुआ और उसने अपने पिता से कहा कि क्या आप मुसलमानों से दबते हैं कि इस प्रकार नम्रता पूर्वक बातचीत कर रहे हैं? सुल्तान के दूत ने इसे अपमान समझा और वह वहां से उठ कर मांडू के सुल्तान के पास गया और उसे भड़का कर एक सेना सहित चित्तौड़ पर चढ़ आया। पृथ्वीराज ने अपने पिता की ओर से सुल्तान की सेना का सामना किया और ख्यातों के अनुसार वह सफल हुआ तथा सुल्तान को कैद कर लिया। यहीं से पृथ्वीराज के पराक्रम व शौर्य का प्रकाश बिखरने लग गया। इसके बाद भी पृथ्वीराज ने मेवाड़ पर आये अनेक संकटों में अपने असीम बाहुबल का परिचय दिया।

 किन्तु विधाता को भला यह कहां मंजूर था कि यह महाबली पृथ्वीराज दो घड़ी विश्राम से बैठ जाये, उसका जीवन तो संघर्ष की माटी से बना था।

 एक दिन पृथ्वीराज व संग्रामसिंह दोनों ही अपनी अपनी जन्म पत्रियाँ ज्योतिषी को दिखला रहे थे। दुर्भाग्य से ज्योतिषी ने महाराणा बनने के ग्रह संग्राम के दिखलाये, इस पर पृथ्वीराज ने वहीं सांगा पर एक प्रहार किया, जिससे सांगा एक आंख को सदैव के लिये खो बैठे। दोनों राजकुमारों का यह संघर्ष एवम् द्वेष बढ़ता ही गया। एक दिन पुन: जब दोनों तलवारों से भिड़ रहे थे। उनके काका सारंगदेवोत ने उन्हें रोकना चाहा किन्तु पृथ्वीराज की तलवार को सांगा की जगह सारंगदेवोत ने अपने ऊपर झेली जिससे वह घायल हुआ। इसके बारे में एक दोहा अभी भी राजस्थान में प्रसिद्ध है

पीथल खग हाथां पकड़, वह सांगा किय वार।
सारंग झेले सीम पर, उणवर साम उबार।

उपरोवत संघर्ष में सांगा और पृथ्वीराज दोनों ही घायल हुए, मगर इसके उपरान्त राणा रायमल ने पृथ्वीराज को कहला भेजा कि-'दुष्ट, मुझे मुंह मत दिखलाना क्योंकि मेरी विद्यमानता में तूने राज्य लोभ से ऐसा क्लेश बढ़ाया और मेरा कुछ भी लिहाज न किया।

 
पृथ्वीराज लजित होकर कुम्भलगढ़ में जाकर रहने लगा, किन्तु उसके पराक्रम की कहानी को पूर्ण विराम नहीं लगा।

 एक बार जब उसने राणा की शरण में आये टोडा के सोलंकी हरराजोत की पुत्री ताराबाई के सौन्दर्य के बारे में सुना तो वह विवाह करने को तैयार हो गया। किन्तु विवाह से पूर्व हरराजोत की एक शर्त थी कि तारा से विवाह करने वाले को ललाखों से लड़कर पुन: पूर्वजों की जागीर टोडा को मुझे दिलाना होगा। पृथ्वीराज इसके लिये सहर्ष तैयार हो गया और उसने तुरन्त एक सेना लेकर लल्ला खां पर चढ़ाई कर दी। बहुत वीरता पूर्वक ललाखां और उसके मित्र अजमेर के सूबेदार मत्लू खां की संयुक्त सेना को पराजित कर टोडे का राज्य राव हरराजोत को दिला दिया तथा तारा के साथ विवाह किया। लला खां के साथ हुऐ युद्ध के सम्बन्ध में प्राचीन पद्य प्रसिद्ध है :-

भाग लल्ला पृथ्वीराज आयो
सिंहरे साथ रे, स्याल ब्यायो।

उपरोक्त पद्य से ही प्रतीत होता है कि पृथ्वीराज का आतंक उस समय कितना अधिक छाया हुआ था। वास्तव में पृथ्वीराज एक महान् साहसी पुरुष था। सारंगदेव से पृथ्वीराज का बैर प्रारम्भ से ही था। फलस्वरूप पृथ्वीराज ने राणा से सारंग देव को भैंसरोड़गढ़ की दी हुई जागीरी का विरोध किया तो राणा ने कहा कि 'हमने तो दे दी, अगर तुम ले सको तो ले लो।इस पर पृथ्वीराज ने 2000 की सेना लेकर भैंसरोड़गढ़ पर आक्रमण कर दिया। सारंगदेव पृथ्वीराज के शौर्य से परिचित था ही, वह किले से भाग निकला और बून्दी के राव सूरजमल से जा मिला। सूरजमल इस समय महाराणा से नाराज था और उसने मेवाड़ के कई सारे भाग पर अधिकार कर रखा था।

 महाराणा रायमल सूरजमल के आतंक से परेशान थे। उनकी इस परेशानी को दूर करने के लिये किसी ने कमर नहीं बांधी किन्तु पृथ्वीराज ने सूरजमल को मारने का बीड़ा उठाया। जैसा कि 'हरिभूषण महाकाव्य' में पाया जाता है कि महाराणा रायमल ने एक दिन दरबार में कहा कि महाबली सूर्यमल के कारण मुझ को इतना दु:ख है कि उसके जीते जी मुझे यह राज्य भी प्रिय नहीं है। उसके इस कथन पर जब कोई सरदार सूर्यमल को मारने को तैयार न हुआ तो पृथ्वीराज ने उसको मारने का बीड़ा उठाया। महाकाव्य में दी हुई पंक्तियां इस प्रकार है :-

तदात्मजो महावीर: पृथ्वीराजो रणागुणी : ।
तेनोत्थाय नमस्कृत्य बीटिका याचिता ततः ॥ 27
अवश्य माखीयां में सूर्यमल्लो महाबली।
निराधारो पि नालिकः सापथ्तो ........ ।28। (सर्ग 2)

महाराणा ने पृथ्वीराज के इस साहसी कदम पर बहुत प्रसन्नता व्यक्त की। पृथ्वीराज ने सूर्यमल से टकराने के लिये तैयारियां करना शुरू कर दी। कुछ ही समय में सूर्यमल व सारंगदेव मान्डू के सुल्तान की सहायला लेकर मेवाड़ पर चढ़ आये। पृथ्वीराज ने डटकर मुकाबला किया और सन्ध्या होने पर जब कि सेनायें अपने अपने पड़ाव में लौट गई थी, वह सूर्यमल के डेरे पर निडर हो पहुंचा और दोनों काका-भतीजे के मधुर वार्तालाप के अन्त में पृथ्वीराज यह कह कर पुन: लौट आया कि-'काकाजी, स्मरण रखिये कि मैं आपको भाले की नोंक जितनी भूमि भी न रखने ढूंगा।'

 उपरोक्त उदाहरण से यह स्पष्ट है कि सूर्यमल और पृथ्वीराज में जहां स्पर्धा थी, वहीं प्रेम भी था। सूर्यमल जब चित्तौड़ की लड़ाई में परास्त होकर बाठेड़ा

 चला गया पृथ्वीराज ने उसका पीछा किया और वह रात के समय ही बाठेड़ा जा पहुंचा। सूर्यमल अपने कुछ साथियों सहित पृथ्वीराज की पहुंच के समय ताप रहा था। पृथ्वीराज सूर्यमल के डेरे में सेना सहित घुस गया। युद्ध शुरू हो गया। पृथ्वीराज को पास आते देखकर सूर्यमल ने कहा-'कुंवर, हम तुम्हें मारना नहीं चाहते हैं, क्योंकि तुम्हारे मारे जाने पर राज्य डूबता है, मुझ पर तुम शस्त्र चलाओ।" यह सुनते ही पृथ्वीराज ने लड़ाई बन्द करवा दी और घोड़े पर उतर कर सूरजमल से पूछा-'काकाजी, आप क्या कर रहे थे।सूरजमल ने उत्तर दिया-'हम तो यहां निश्चिन्त होकर ताप रहे थे।इस पर पृथ्वीराज तपाक से बोला,-'मेरे जैसे शत्रु के होते हुए भी क्या आप निश्चिन्त रहते हैं?" सूरजमल इस चुनौती भरे वाक्य को सुनकर कुंवर पृथ्वीराज की सूरत निहारने लगा।

 पृथ्वीराज के उपरोक्त वाक्य में झलकने वाले आत्मविश्वास ने ही आगे चलकर सूरजमल को मेवाड़ छोड़ने के लिये मजबूर किया। पृथ्वीराज की निष्कपटता एवम् निडरता का एक और उदाहरण हमारे सामने है जो महाभारत की याद दिलाता है। जब सूरजमल बाठेड़ा से भागा और सादड़ी पहुंचा, पृथ्वीराज भी पीछे-पीछे सादड़ी गया और वहां सूरजमल से मिलकर अन्त: पुर में गया, जहां उसने अपनी काकी से मुजरा करके कहा, "मुझे भूख लगी है।सचमुच कितना निश्च्छल मन था। उस पृथ्वीराज का जिसने सूरजमल को युद्ध के मैदान में सदैव शत्रु समझा, किन्तु उसके बाद उसने उसी शत्रु को अपने परिवार का ही एक प्रिय व्यक्ति माना, साथ-साथ खाना खाता और रात में पारिवारिक बातें किया करता था। ऐसे विशाल हृदय वाला पृथ्वीराज नीति के प्रश्न पर सदैव नीति से ही काम लेता था। जब उसने सुना कि भुवा रमाबाई को पति (राजा मंडलिक) के बदचलन होने के कारण दु:ख है तो उसने तुरन्त गिरनार (गुजरात) सेना सहित ग्रस्थान किया और महल मे सोते हुए मंडलिक को जा दबोचा। मंडलिक प्राण भिक्षा मांगने लगा, जिस पर उसने उसके कान का एक कोना काट कर उसे छोड़ दिया और रमाबाई को अपने साथ ले आया। ऐसा ही सिरोही के राव जगमाल, जो पृथ्वीराज की बहिन आनन्दाबाई को दु:ख दिया करता था, को ठीक किया किन्तु राव जगमाल ने जहां अपने वीर साले का बहुत सत्कार किया, वहीं सरल हृदय पृथ्वीराज को लौटते समय विष मिली गोलियां खिला दी, जिसके कारण कुंभलगढ़ के निकट पहुंचने पर उसका देहान्त हो गया।

 इस प्रकार यदि मेवाड़ का यह महा पराक्रमी कुंवर पृथ्वीराज कुछ समय और जीवित रह जाता तो पता नहीं मेवाड़ के इतिहास में वीरता के और कितने पृष्ठ जुड़ते ? नैणसी ने तो अपनी ख्यात में इसे उड़ना पृथ्वीराज कहकर लिखा है। पृथ्वीराज की वीरता तो इसी में प्रकट हो जाती है कि बाबर जैसे व्यक्ति द्वारा मान्य शक्तिशाली सांगा भी पृथ्वीराज के हाथों पराजित होकर कई वर्षों तक मेवाड़ के बाहर दर-दर की ठोकरें खाता फिरा। जब तक पृथ्वीराज जीवित रहा, सांगा की मेवाड़ में आने की हिम्मत नहीं हुई। सांगा मेवाड़ में तब ही आया जब पृथ्वीराज को विधाता के कूर हाथों ने इस पावन धरती से छीन लिया था।

 
संक्षेप में यह कहना ही उचित होगा कि   सचमुच उसकी   भुजाओं में भीम   का बल, मन में अभिमन्यु सा आत्मविश्वास, और रगों में अपने ही वंशजों की यशमय स्फूर्ति भरी थी।  इतिहासकारों ने उसे राणा के पद पर आसीन न हो   सकने के कारण ख्याति   नहीं दी। अगर वह सांगा की  जगह  राणा होता  तो मेवाड़ के इतिहास में शायद ही   और कोई राणा   शौर्य और पराक्रम में   पृथ्वीराज की समानता करता।

(“राजस्थान के सूरमा “ ,लेखक – तेज़सिंह तरुण)



 


Friday 27 January 2017

महाराणा संग्रामसिंह (सांगा)

महाराणा संग्रामसिंह का जन्म वि.सं. 1539, वैशाख वदी 9 (12 अप्रेल, 1482) तथा राज्याभिषेक 24 मई, 1509 को हुआ था। महाराणा संग्रामसिंह, जो लोगों में सांगा के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। यथा नाम तथा गुणवाले संग्रामसिंह का जन्म ही संग्राम के निमित हुआ था। राज्याभिषक के बाद सांगा का जीवन निरन्तर युद्धों अर्थात् संग्रामों के बीच ही बीता। सुप्रसिद्ध इतिहासकार गौरी शंकर हीराचंद ओझा ने सांगा के सन्दर्भ में लिखा है कि-'मेवाड़ के महाराणाओं में वह सबसे अधिक प्रतापी और प्रसिद्ध हुआ, इतना ही नहीं, किंतु उस समय का सबसे प्रबल हिन्दूराजा था जिसकी सेवा में अनेक हिन्दू राजा रहते थे और कई हिन्दू राजा सरदार तथा मुसलमान अमीर, शाहजादे आदि उसकी शरण लेते थे।

 
ओझाजी के उक्त कथन का सार यही है कि सांगा अपने समय का एक शक्तिशाली और प्रतापी शासक था। ऐसा नहीं था कि सांगा को यह सब विरासत में मिला। सच तो यह है कि सांगा ने अपने पिता रायमल के समय के लड़खड़ाते मेवाड़ को सम्बल ही नहीं दिया बल्कि अपने दादा कुंभा द्वारा स्थापित साम्राज्य को और मजबूती प्रदान कर मेवाड़ की यश-कीर्ति को बढ़ाया। अगर मैं यहाँ यह कहूँ तो सम्भवत: गलत नहीं होऊँगा कि गुहिल ने मेवाड़ की नींव रखी, बप्पा ने उसके निर्माण को प्रारम्भ किया और कुंभा ने उसे पूर्णकर शक्ति एवं शौर्य के रंग से रंगा तो सांगा ने उसे पराक्रम एवं प्रभुसत्ता का स्वरूप प्रदान किया। यहीं से मेवाड़ की एक वह पहचान बनी जिसने प्रताप एवं अन्यान्य शासकों को उस पहचान को रखने के निमित्त अनवरत संघर्ष करने की प्रेरणा दी।

योद्धा के रूप में   जैसा कि पूर्व में  लिखा गया है   कि  संग्रामसिंह को   यथा नाम तथा  काम   करना पड़ा। राज्यारोहण के पश्चात सांगा को ईडर आदि अपने ठिकानों को व्यवस्थित किया। ईडर पर गुजरात सुलतान मुज़फ्फर की नजरें प्रारम्भ से ही थी। इस पर अधिकार करने   के लिए कई   प्रयास किये  किंतु राणा सांगा उसके वास्तविक स्वामी रायमल के पक्ष में रहे और उसे संघर्ष के लिए प्रेरित करते रहे।  फल रूप रायमल सुल्तान से संघर्ष करता रहा किंतु जब गुजरात के सुल्तान ने भी ठानली और   ईडर पर आ जमा तो भला राणा सांगा कैसे चुप बैठे सकते थे? तुरन्त ईडर पर चढ़ आये। सुल्तान का हाकिम निजामुल्मुल्क सांगा के आगमन की खबर मात्र से ही भाग खड़ा हुआ और अहमदनगर के किले में  जा छिपा। राणा ने  भी ईडर की गद्दी पर रायमल को बिठाकर अहमदनगर को जा घेरा। मुसलमानों ने  किले के दरवाजे बन्द कर   दिये, पर वीर राजपूत कब चुप्प रहने   वाले थे। बागड़   का डूंगर सिंह और   उसके  पुत्र  कान्हसिंह ने  अप्रत्याशित शौर्य का परिचय देते हुए दरवाजे तोड़ अंदर प्रवेश कर लिया। बस, अब क्या था, दोनों और से तलवारें बजी और सांगा के आगे सुलतान की सेना नहीं टिक सकी और भाग खड़ी हुई।
इस युद्ध के सन्दर्भ में एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा कि जब किले की किंवाड़ सांगा के हाथी किंवाड़ों पर लगे कीलों को देखकर नहीं तोड़ सके तो डुंगरसिंह को बेटे कान्हसिंह ने किंवाड़ों पर लगे उन नुकीले कीलों को पकड़कर लटक गया और फिर महावत को हाथी बढ़ाने के लिए कहा। महावत ने हाथी आगे बढ़ाया, किंवाड़ टूट गये और राजपूत सैनिकों ने किले में प्रवेश किया। कान्हसिंह द्वारा प्रदर्शित इस वीरतापूर्ण कार्य पर सांगा सहित सभी ने उस वीर को नमन किया।

 
सांगा ने ईडर के बाद अहमदनगर भी जीत लिया और बड़नगर की और बढ़े किंतु यहाँ ब्राह्मणों की अभयदान की प्रार्थना पर सांगा ने कुछ नहीं किया। बीसलनगर की ओर सेना का कूच किया। यहाँ गुजरात सुल्तान के हाकिम खां को मारकर शहर को जमकर लूटा और कई मुसलमानो को कैद किया।

 
दिल्ली पर धाक महाराणा सांगा ने गद्दी पर बैठते ही दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान सिकन्दर लोदी के समय में उसके कई इलाकों पर अधिकार कर लिया था। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र इब्राहीमलोदी जो कब से सांगा से दो-दो हाथ करना चाह रहा था, एक बड़ी सेना के साथ राजस्थान में हाड़ोती क्षेत्र की ओर बढ़ा। ज्यों ही सांगा को यह समाचार मिला, मुकाबले के लिए प्रस्थान कर गये और खातोली गाँव के पास दोनों के बीच भीषण युद्ध हुआ। फाब्स (रासमाला), हरविलास शारदा (राणा सांगा) के अनुसार एक पहर तक चले इस युद्ध में लोदी भाग खड़ा हुआ। एक शाहज़ादा गिरफ्तार हुआ जिसे दण्ड लेकर छोड़ दिया लेकिन सांगा का भी बायां हाथ कट गया और घुटने पर तीखा तीर लगने से सदा के लिए लंगड़े हो गये। दिल्ली को सांगा की शक्ति का अनुमान हो गया मगर इब्राहीम लोदी शांत नहीं बैठ सका और एक बार फिर वि.सं. 1518 में चित्तौड़ की ओर मियां माखन के नेतृत्व में बढ़ चला और वही हुआ जो पूर्व में हुआ। सांगा ने करारा उत्तर दिया। वे इस युद्ध में घायल अवश्य हुए लेकिन पुनः विजय प्राप्त की। धोलपुर के पास हुए इस संघर्ष का उल्लेख बाबर ने स्वयं 'तुजुके बाबरी' में किया और लिखा कि इस युद्ध में राणा की विजय हुई। राणा सांगा ने दिल्ली के सुल्तान को तो अपनी शक्ति एवं युद्ध कौशल से अवगत करा दिया मगर पड़ौसी गुजरात एवं मालवा से संघर्ष का अंत नहीं हो रहा था। कभी वह तो कभी वह, कोई न कोई बखेड़ा करते रहते, जिसके कारण सांगा को सदैव चौकस रहना पड़ता था। कभी उन्होंने मालवा के प्रबल राजपूत सरदार मेदिनीराय की मदद की तो कभी मांडू के सुलतान की सुरक्षा में हाथ बढ़ाया। ऐसे छोटे-बड़े संघर्ष चलते रहे। सन् 1519 ई में हुए संघर्ष में तो मांडू के घायल सुलतान महमूद को राणा ने जीवन दान भी दिया और तीन मास तक अपन पास रखा।

ओझा जी के अनुसार एक दिन सांगा ने उसके व्यवहार से प्रसन्न होकर गुलदस्ता भेंट करने की इच्छा व्यक्त की। इस पर मांडू सुलतान ने कहा कि किसी चीज के देने के दो तरीके होते हैं, एक तो अपना हाथ ऊँचा कर अपने से छोटे को देवें या अपना हाथ नीचा कर बड़े को नज़र करें। मैं तो आपका कैदी हूँ, इसलिए यहाँ नज़र का तो कोई सवाल ही नहीं, तो भी आपको ध्यान रहे कि भिखारी की तरह केवल इस गुलदस्ते के लिए हाथ पसारना मुझे शोभा नहीं देता। यह उत्तर सुनकर सांगा बहुत प्रसन्न हुए और गुलदस्ते के साथ मालवे का आधा राज्य भी देने की बात कहदी। महाराणा की इस उदारता से प्रसन्न होकर सुलतान ने गुलदस्ता ले लिया। दूसरे ही दिन महाराणा ने फौज खर्च लेकर सुल्तान को एक हजार राजपूत सैनिकों के साथ मांडू भेज दिया। सुलतान ने भी अधीनता के चिन्ह स्वरूप

 
महाराणा को रत्नजटित मुकुट तथा सोने की कमरपेटी भेट की। महाराणा सांगा के इस उदार बर्ताव की मुस्लिम लेखकों ने बड़ी प्रशंसा की है, परन्तु राजनैतिक परिणाम की दृष्टि से महाराणा की यह उदारता राजपूतों के लिए हानिकारक ही सिद्ध हुई। मांडू का यह सुलतान 1520 ई में गुजरात के सुलतान के साथ मिलकर पुन: युद्ध को तैयार हो गया जिसमें भी राणा सांगा का विजयी होने का उलेख है। जो भी सांगा ने भी हो, दुश्मन के साथ उसी राजपूती उदारता का परिचय दिया जैसा उनके पूर्व के राजपूती शासकों ने दिया और बदले में बुरे परिणाम देखने को मिले। गुजरात के शाहजादे बहादुर शाह को सांगा के समय में मेवाड़ में शरण मिली थी जबकि वह चित्तौड़ को नष्ट करने का भाव लेकर आया था। सांगा की माता तो उसे 'बेटे' शब्द से सम्बोधित करती थी।

 
राजनैतिक और कूटनीति के परिदृश्य में तो यह ठीक नहीं था लेकिन राजपूत संस्कृति में तो यह व्यवहार ही श्रेष्ठ माना जाता रहा है। सांगा ने वही किया, करते भी क्यों नहीं, राजपूत जो थे।

बाबर से संघर्ष

सांगा अब तक भारत में स्थापित मुस्लिम शासकों से ही जूझने में लगे थे कि पश्चिम से बाबर जो अपने राज्य फ़रग़ाना में सफल नहीं होने पर तैमूर के आक्रमणों से प्रभावित होकर भारत में सफलता की आश लिए पांच बार आया किंतु छुट पुट सफलताएं ही प्राप्त कर सका। उसे यह आभास अवश्य हो गया था कि दिल्ली में अफगान शक्ति क्षीण हो रही है और अन्यत्र भी मेवाड़ के राणा सांगा के अतिरिक्त कोई शक्ति नहीं है। अत: वह समकालीन पंजाब के गवर्नर दिलावर खां के न्यौते पर स्थायी रूप से भारत पर अधिकार करने की मंशा से 17 नवम्बर, 1525 ई को काबुल से चला और रास्ते में संघर्ष करता हुआ पानीपत के मैदान में आ डटा, जहाँ दिली सुलतान इब्राहीम लोदी से मुकाबला हुआ और वह सफल रहा। इब्राहीम लोदी मारा गया। इसके बाद उसने आगरा भी फतह कर लिया।

 
बाबर यह अच्छी तरह जानता था कि हिन्दुस्तान में उसका सबसे भयंकर शत्रु महाराणा सांगा है, इब्राहीम लोदी नहीं। महाराणा की बढ़ती शक्ति एवं प्रतिष्ठा को वह जानता था। उसे भली भांति ज्ञात था कि महाराणा से युद्ध करने के दो ही परिणाम हो सकते हैं, या तो वह भारत का सम्राट हो जाए, या उसकी सब आशाओं पर पानी फिर जाए और उसे वापस काबुल जाना पड़े।

ऐसा ही कुछ सांगा ने भी अनुमान लगा लिया था कि अब इब्राहीम लोदी से भी अधिक प्रबल शत्रु देश में आ गया है। अत: उन्होंने भी रणथंभोर, बयाना आदि सैनिक महत्व के ठिकानों और अपनी सैन्य शक्ति को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया था। उधर अफगान भी बाबर के विरुद्ध सांगा को समर्थन देने को तैयार हो गये थे। जब देखा कि बाबर आगरा जीतकर आगे बढ़ने को है तो सांगा भी उसी दिशा में आगे बढ़े और खंडार पर विजय प्राप्त कर बयाना की तरफ बढ़े और उसे भी अधिकार में ले लिया। बयाना का हाकिम मेहंदी ख्वाजा हारकर भागा और बाबर से आज मिला। सांगा वहां से चला और बसावर (भुसावर) आ पहुँचा। सांगा ने 22 फरवरी, 1527 को बाबर के एक मुख्य सेनापति अब्दुल अजीज जो खानवा पहुँचा उस पर आक्रमण कर दिया और यहाँ बड़ी वीरता दिखाई, शत्रुओं का झंडा छीन लिया तथा कोई बड़े-बड़े मुगत सिपहसालारों को धूल चटाई और दो मील तक पीछा करते हुए उन्हें शिकस्त दी। अब स्थिति यह थी कि पूरी मुगल सेना में घोर निराशा व्याप्त थी। स्वयं बाबर अपनी दिनचर्या में लिखता है किइस समय पहले की घटनाओं से क्या छोटे और क्या बड़े सभी सैनिक भयभीत और हतोत्साह हो रहे थे।'

 
ऐसे में बाबर ने दिन रात एक कर युद्ध संरचना की। सेना में जोश भरने के लिए शराब न पीने की प्रतिज्ञा की और दाढ़ी न कटवाने की कसम खाई। जोशीले भाषण दिये और 13 मार्च, 1527 को कूच किया। उधर राणा की सेना में हसन खां मेवाती, इब्राहीम लोदी के पुत्र महमूद लोदी, मारवाड़ का राव गांगा, आंबेर (आमेर) का राजा पृथ्वीराज सहित राजपूताने के सारे राजा, रईस एकत्रित हो गये। बस, अब वह घड़ी (17 मार्च, 1927 सवेरे साढ़े नौ बजे) आ ही गई और युद्ध शुरू हो गया। राणा की सेना चार भागों में विभक्त थी-अग्रभाग (हरावल), पृष्ठ भाग, दक्षिण पाश्र्व और वाम पाश्र्व। स्वयं सांगा हाथी पर सवार थे। दोनों और से ऐसा घमासान मचा जिसकी कल्पना न मुगलों को थी और न राजपूतों को। अभी युद्ध अपने यौवन पर ही था कि एक तीर हाथी पर बैठे सांगा के सिर में लगा। वे मूछिंत हो गये और उन्हें तुरन्त युद्ध भूमि से मेवाड़ की ओर पालकी से ले गये। झाला अज्जा को तुरन्त युद्ध की कमान देने के निमित्त राणा के हाथी पर सवार किया और युद्ध जारी रखा, लेकिन वहाँ बात नहीं बनी और तोपों के गोलों के आगे वे नहीं ठहर सके व राजपूत सेना की हार हो गई। एक नये इतिहास की रचना हो गई। बाबर भी जिस सपने को सच नहीं मानता था, वह सच हो गया।

 
एक पलक झपकते ही विदेशी आक्राताओं की जड़ें जमने का अवसर मिल गया। राजपूती इतिहास में किसी एक युद्ध में जितनी विशाल एकता राणा सांगा के छत्र के नीचे प्रदर्शित हुई, वह न पूर्व में कभी देखी गई और न बाद में कभी दिखलाई दी एवं रणकौशल इस युद्ध में सभी राजपूत-शासकों ने जिस शक्ति, शौर्य, साहस एवं स्वाभिमान का परिचय दिया वह सदैव इतिहास में वन्दनीय रहेगा, अभिनन्दनीय कहलायेगा।

मूल्यांकन

पृथ्वीराज चौहान के बाद से हिन्दू धर्म पर आक्रांताओं द्वारा सतत आक्रमण होते रहे। असंख्य मंदिर धराशायी हो गये तो जबरन धर्मान्तरण करने में लगे थे ये आक्रांता। ऐसे समय सांगा द्वारा उठाया कदम साहसपूर्ण एवं स्तुत्य ही कहलायेगा। इतिहासकार हर बिलास शारदा ने बहुत सुन्दर शब्दों कहा है कि-'सांगा ने सोलहवीं सदी में एक ऐसा हिन्दू राज्य स्थापित करने का प्रयत्न किया जो प्राचीन भारत की परम्पराओं पर आधारित था। संग्रामसिंह अपने पैतृक राज्य को प्राचीन भारतीय शासकों को राज्यों की तरह निर्मित करना चाहते थे, जिसमें अपनी प्रजा की सुख-शान्ति समृद्धि व उन्नति ही राजा का और राज्य का एक मात्र उद्देश्य होता था।'

संक्षेप में सांगा एक कुशल एवं दूरदर्शी शासक एवं अद्वितीय योद्ध थे, जिन्होंने न केवल मेवाड़ व राजस्थान बल्कि विश्व इतिहास में अपना स्थान बनाकर भारत को गौरवान्वित किया।

(लेखक तेजसिंह तरुण राजस्थान के सूरमा” )


 

Tuesday 24 January 2017

राव जोधा

शक्ति, शौर्य, साहस और स्वतंत्रता का दूसरा नाम ही राजस्थान है, और फिर राव जोधा तो इन गुणों का पर्याय ही था। प्रारम्भ से अंत तक उसके हर कदम पर संघर्ष देखने को मिलता है। यह भी एक सत्य है कि जोधा ने संघर्ष की हर चुनौती का साहस के साथ सामना किया, अपने भीतर के जुझारूपन को दर्शाया। उसके इन्हीं गुणों के कारण वह मरुभूमि पर एक सशक्त राज्य की नींव डालने में सफल रहा। कहने को उससे पूर्व भी उसके पूर्वज राजा थे लेकिन वह मजबूती नहीं थी जो जोधा ने स्थापित  की। यह  जोधा की  कुशलता  ही थी कि न  केवल अपने    बिखरे हुए व पल-पल लड़खड़ाते राज्य को संगठित किया बल्कि अपने बड़े पुत्र बीका को भी एक नये राज्य की स्थापना के लिए प्रेरित किया। अगर यह कहा जाए तो कोई अतिथ्योति नहीं होगी कि जोधपुर और बीकानेर राज्य का वास्तविक जनक राव जोधा ही था। उसने न केवल छोटे-बड़े सामंतों को ही एक सूत्र में बांधा बल्कि उन्हें अपने अद्भुत राज-कौशल से  मजबूत भी  किया और कुशल संचालन के लिए प्रेरित किया।

 
ऐसे संघर्षवान किंतु प्रतापी  राव जोधा  का जन्म  वि.सं. 1472, अप्रैल-1, 1416 ई. में हुआ।  जोधा  बाल्यावस्था  से ही पिता रणमल के साथ रहने के कारण युद्ध एवं कूटनीति में तरूणावस्था तक बहुत कुछ अनुभव ले चुका था। उसे पिता का मेवाड़ में रहना अच्छा नहीं लगता था लेकिन पिता से विशेष स्नेह को देखते हुए कुछ कहना ठीक  नहीं समझा। मेवाड़ के सरदार महाराणा कुंभा   के   निरंतर  कान भर रहे थेयहाँ तक कहने लग   गये थे कि किसी भी दिन  रणमल मेवाड़ पर अधिकार कर लेगा, अत: उसको मेवाड़ से दूर करना आवश्यक है।

 
आखिर में हुआ भी यही कि रणमल को  धोखे से  मरवा  दिया  गया। यह  बात  1438 ई. की है। जोधा भी उस समय चित्तौड़गढ़ की तलहटी में स्थित अपने निवास में ही था कि एक डोम ने दुर्ग की दीवार पर चढ़कर जोर से चिलाते हुए कहा कि ;

   चूंडा अजमल आविया, मॉडू हूँ धक आग।
                                                   जोधा रणमल मारिया, भाग सके तो भाग।

ज्यों ही जोधा ने सुना तुरंत अपने सात सौ समर्थक साथियों के साथ  चित्तौड़ से  प्रस्थान कर गया किंतु चूडा ने भी ससैन्य उसका पीछा किया। अनेक जगह आमना-सामना हुआ। कपासन के  पास तो भयंक र संघर्ष हुआ। जोधा के  कई सैनिक हताहत हुए। मारवाड़ की सीमा में प्रवेश करते समय जोधा के पास केवल सात साथी थे। उधर पीछा करते हुए चूंडा ने मंडोवर पर अपना अधिकार कर लिया और अपने पुत्रों को वहाँ का दायित्व सौंपकर स्वयं चित्तौड़ आ गया।

 
मंडोवर पर अधिकार हो जाने के कारण जोधा इधर-उधर भटकते हुए काहूनी गाँव जाकर अपना वास बनाया। यहाँ रहते हुए राव जोधा ने अपने साथी सैनिकों की संख्या बढानी शुरू की और मंडोवर पर कई आक्रमण  किये किंतु सफल नहीं हुआ। जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार उन्हीं दिनों एक   दिन मंडोवर से भागता हुआ  भूख-प्यास से व्यथित जोधा रास्ते के एक जाट के घर ठहरा। जाट की पत्नी ने घर आये अतिथि से भोजन की मनुहार की तो जोधा ने कहा जो तैयार हो ले आओ, बहुत भूख लगी है। घर में बाजरे की गर्म घाट तैयार थी। थाली भरकर जोधा के सम्मुख लाकर जैसे ही रखी, उसने खाने के लिए थाली के बीच में अंगुलियां डाली तो गर्म होने के कारण अंगुलियों के पौर जल गये। इस पर सामने बैठी जाटनी से नहीं रहा गया और बोल पड़ी-'मुझे तो तू जोधा के जैसा ही निर्बुद्धि दिखाई देता है।

 
इस पर जब जोधा ने पूछा-'बाई जोधा निर्बुद्धि कैसे है?' तब जाटनी ने कहा-'निर्बुद्धि नहीं तो और क्या, वह भी तेरी तरह आसपास की जमीन पर तो अधिकार करता नहीं और केन्द्र में स्थित मंडोर पर रोज-रोज धावे बोलता है अब बेटे, तुम ही बताओ बीच में डालने पर तुम्हारे हाथ जले कि नहीं, यही अगर तुम आसपास की घाट लेते तो कुछ नहीं होता।

 
कहते हैं कि कभी भी किसी से भी सीखा जा सकता है। यही बात राव जोधा के साथ भी हुयी। जाटनी की सीख को मन में उतारली और उसने मंडोवर लेने से पहले अपने आसपास के क्षेत्रों पर ध्यान दिया और विभिन्न राजपूत सरदारों से मेलजोल बढ़ाना शुरू किया। इससे जोधा को स्थिति में धीरे-धीरे सुधार होने लगा।

इसी बीच मेवाड़ के महाराणा कुंभा भी जोधा के प्रति कुछ उदार हुए। यह परिवर्तन कुंभा की दादी हंसा के कहने पर हुआ। कुंभा ने अपनी दादी से स्पष्ट कहा कि मेवाड़ के सरदारों के गुस्से को देखते हुए प्रत्यक्ष  तो वह इधर-उधर भटकते जोधा की मदद नहीं कर  सकता है किंतु   अगर वह मंडोर पर   अधिकार करता है तो  कोई आपत्ति नहीं होगी। इस पर हंसा ने कुंभा की बात अपने विश्वस्त सेवक चारण डूला के माध्यम से जोधा तक पहुँचादी।

 
इस संदेश से राव जोधा के प्रयास और तेज हो गये। घुड़सवारों की संख्या पर्यात नहीं थी। इस निमित सेत्रावा के रावत लूणा, हरबू सांखला व रामदेव तंवर से उसने सहयोग मांगा। सौभाग्य से सभी ने जोधा को समर्थन देना स्वीकार लिया। स्मरण रहे कि हरबू अथवा हरभू सांखला व रामदेव (बाबा रामदेव) तंवर मारवाड़ क्षेत्र में सिद्ध पुरुष के रूप में पूजे जाते थे और जन-सामान्य पर उनका खासा प्रभाव भी था। जोधा ने किंचित् भी देर करना उचित नहीं समझा और मंडोवर पर चढ़ाई कर दी। मंडोवर से पूर्व जोधा ने महाराणा के चौकड़ी थाने पर आक्रमण किया जिसमें महाराणा के कई प्रमुख (दूदा, बीसलदेव आदि) सरदार मारे गये। इससे मंडोवर की ओर बढ़ना सरल हो गया। रास्ते के कोसाणे को भी जीत लिया अंतत: सन् 1453 ई. का वह शुभ दिन आ ही गया जब पन्द्रह वर्षों के बाद जोधा का स्वप्न पूरा हुआ और मंडोवर पर राठौड़ी ध्वज फहरा उठा।

 
इस विजय-अभियान के साथ कुछ भ्रान्तियों ने भी जन्म ले लिया। जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार जोधा द्वारा मंडोवर पर अधिकार कर लेने के बाद कुंभा ने उस पर चढ़ाई की और कुंभा की हार हो गई तथा चित्तौड़ आकर दुर्ग के किंवाड़ जला दिये। अधिकांश इतिहासकर इससे सहमत नहीं है। प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा का तो कहना है कि कुंभा अपने युग का प्रबलतम हिन्दू राजा था, उसी के मौन संकेत पर जोधा ने मंडोवर पर अधिकार किया, ऐसी स्थिति में राव जोधा ने कुंभा को अपमानजनक पराजित किया हो, उचित नहीं लगता है। ओझा की तो मान्यता है कि कुंभा ने मारवाड़ पर दूसरी बार चढ़ाई की ही नहीं। एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासवेता डॉ. गोपीनाथ शर्मा का भी ऐसा ही मानना है।

 
राजपूती व्यवहार एवं मर्यादाओं की दृष्टि से भी यही लगता है कि जोधा ने मंडोवर पर विजय प्राप्त की और महाराणा कुंभा ने अपनी दादी हंसा के कहे अनुसार अनदेखी की हो। राव जोधा के सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर भी यदि दृष्टिपात करें तो वे अपने मौन सहयोगी के साथ अपमानजनक व्यवहार करने वाले नहीं हो सकते थे। कई प्रसंगों में जोधा राजपूती मान-मर्यादाओं की पालना करने वाले व्यक्तित्व के धनी थे। जो अगर ऐसा होता तो अपनी पुत्री श्रृंगार देवी का सम्बन्ध कुंभा के पुत्र रायमल के साथ क्यों करते ? और क्यों ही अपने समय के सर्वशक्तिमान कुंभा ही अपने पुत्र का सम्बन्ध जोधा की पुत्री से करते ? हाँ, एक बात अवश्य प्रतीत होती है कि दोनों ही चूंकि पूर्व में सम्बन्धी थे, अत: एक दूसरे के साथ मिलकर चलने को सहमत हो गये हों। क्योंकि मेवाड़ के सामने मालवा-गुजरात के मुस्लिम शासकों की सदैव रहने वाली चुनौती थी तो मारवाड़ को भी उत्तरपश्चिमी सीमा से नित्य प्रति का खतरा था। ऐसे में दोनों का हित एक बनकर रहने में ही था।

 
मंडोवर विजय के बाद राव जोधा एक सुदृढ़ राज्य की स्थापना में जुट गया। इस श्रृंखला में मंडोवर के निकट ही 'चिड़िया ट्रंक' पहाड़ी पर एक दुर्ग के निर्माण की नींव मई 12, 1459 ई. को रखी और दुर्ग के नीचे अपने नाम पर जोधपुर नगर बसाकर उसे राजधानी बनाई। नई राजधानी के साथ उसका साम्राज्य-प्रसार का कार्य भी अविराम गति से चलता रहा। मेड़ता, फलोदी, पोकरण, भ्राद्राजून, सोजत, जैतारण, शिव, सिवाना, एवं गोड़वाड़ के कुछ हिस्से तथा नागौर को अपने राज्य में मिलाया। यही नहीं जोधा के ही ज्येष्ठ पुत्र बीका ने भी पिता के कहने पर ही जांगलू प्रदेश में अपना प्रभाव बढ़ाने में लगा था। सच तो यह है कि लगभग सम्पूर्ण मारवाड़ पर राठौड़ वंशीय जोधा एवं उसके पुत्र का परचम लहराने लगा था।

 
जोधा के अपने अन्तिम दिनों में मिली सफलताओं के बाद चारों तरफ उसका राजनीतिक स्तर बढ़ गया था, अब उसके पास राज्य नहीं, साम्राज्य था। इस साम्राज्य के निर्माण में उसके सगे-सम्बन्धियों एवं अन्यान्य जिन समर्थकों का भी समर्थन मिला, उन्हें वह नहीं भूला और सबके प्रति यथा-योग सम्मान दर्शाया। उसकी इसी दूर दृष्टि एवं मानवोचित कृत्य का लाभ मिला और वह अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखने में सफल रहा तथा उसके बाद भी आने वाले राठौड़ राजाओं ने इसी मार्ग का अनुसरण किया।

 
राव जोधा का 73 वर्ष की उम्र में संवत् 1545 के वैशाख मास की सुदी 5, 6 अप्रेल 1489 ई. को जोधपुर में स्वर्गवास हुआ। समाहार के रूप में आज हम यही कहेंगे कि वह वीर, साहसी व असीम धैर्यवान व्यक्तित्व का धनी था। सन् 1931 में प्रकाशित 'मारवाड़ का मूल इतिहास' पुस्तिका में राव जोधा के लिए लिखा कि-'उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी, सदा अपनी भूमि प्राप्त करने का उद्यम करते रहे।" ओझाजी के मत में 'राव जोधा को ही जोधपुर का पहला प्रतापी राजा कह दें तो कोई अतिश्योति नहीं होगी।' ऐसा ही विचार डॉ. गोपीनाथ शर्मा का भी है कि-'जोधा के नेतृत्व ने राठौड़ों के राजनीतिक सम्मान के स्तर को काफी उन्नत किया था। डॉ. जमनेशकुमार ओझा ने एक लेख में ठीक ही लिखा है कि-'उसके व्यक्तित्व में राजनीतिक एवं सैनिक गुणों का सुन्दर समन्वय था।" अंत में मारवाड़ के इतिहास के पुरोधा पं. विश्वरेश्वरनाथ रेउ के अनुसार राव जोधा साहसी और वीर के साथ-साथ उद्योगी, दानी और बुद्धिमान नरेश भी था।

 (लेखक – तेजसिंह तरुण “राजस्थान के सूरमा” )

Sunday 22 January 2017

महाराव देवसिंह

यूं बून्दी राजवंश 'हाड़ा राजवंश' के नाम से जाना जाता है, मूलत: यह चौहान राजवंश है जिसने बून्दी प्राप्ति से पूर्व 200 वर्ष तक नाडोल पर राज किया। बाद में कुतुबुद्दीन एबक ने जब नाडोल पर आक्रमण किया तो चौहान राजवंश ने जालौर-सोनगिरि की ओर कूच किया वहाँ अपना राज स्थापित किया। इसी वंश में से माणिकराय द्वितीय जालोर पर अनवरत मुस्लिम आक्रमणों के कारण किसी सुरक्षित स्थान की तलाश में था और अंतत: इस दृष्टि से मेवाड़ का दक्षिण-पूर्वी भाग ठीक लगा और वह अपने परिवार व विश्वासपात्र सरदारों के साथ इधर आ गया। भैंसरोडगढ़ को अपना केन्द्र बनाया। उसने देखा कि इस भूभाग पर आदिवासी मीणा आदि जन-जातियों का बाहुल्य था और उनका प्रभाव भी था।

 माणिकराय को उन्हें अपने अधीन करने में अधिक जूझना नहीं पड़ा। वृद्धावस्था के कारण भैंसरोडगढ़ के बाहर उसने सीमा प्रसार का प्रयास नहीं किया लेकिन अन्तिम दिनों में पास ही के बम्बावदा पर अधिकार किया और उसे वहाँ की भौगोलिक स्थिति इतनी अच्छी लगी कि उसे ही अपनी राजधानी बना दी। माणिक राय के उत्तराधिकारी हुए जैतराव, अनंगराव, थुलसिंह और विजयपाल। इन सबके बारे में विस्तार से बहुत अधिक कुछ ज्ञात नहीं है लेकिन विजयपाल के पुत्र हरराय या हाडाराव के सम्बन्ध में अवश्य कुछ पढ़ने को मिलता है। जगदीशसिंह गहलोत के अनुसार इस हरराय से ही 'हाड़ाराव' शब्द का चलन इतिहास में हुआ। इसके उपरान्त हरराव के पुत्र बंगदेव (बाघा) ने बम्बावदा-भैंसरोडगढ़ के अतिरिक्त मांडलगढ, बिजौलिया, रतनगढ़ के परगनों पर कब्जा किया। अब चौहानों की इस हाड़ा शाखा के पास एक सम्मानजनक राज्य-सीमा हो गई थी, फिर भी बंगदेव के बड़े पुत्र देवसिंह की मंशा अब भी राज्य-प्रसार पर थी, चूंकि जो कुछ उसके पिता के पास था वह उसके परिजनों के लिए पर्यात नहीं था और न ही उसे सुरक्षा का अहसास था। इसलिए वह निरन्तर प्रयत्नशील था।

 इसी के बीच देवसिंह ने बुद्धिचातुर्यता का प्रदर्शन करते हुए मेवाड़ के सिसोदियों से सम्बन्ध जोड़ने की दिशा में आगे बढ़ा और अपनी बेटी के लिए महाराणा लक्ष्मणसिंह के कुंवर अरिसिंह का हाथ मांगा। बस, अब क्या था ? बात बन गई। सिसोदियों को भी अपने इस दक्षिण पूर्वी भाग को सम्भालने के लिए एक विश्वासपात्र की आवश्यकता थी और देवसिंह के लिए मेवाड़ के सिसोदिया से सम्बन्ध होना बहुत बड़ी बात थी। कहते हैं कि अरिसिंह जब बारात लेकर देवसिंह के यहाँ गये और उसके हालात ठीक नहीं देखे तो लक्ष्मणसिंह ने कहा कि हम आपके साथ हैं, अपनी जागीर को और बढ़ा लो। देवसिंह तो यही चाहता था, वह तुरन्त भैंसरोडगढ़ के आगे मीणों के क्षेत्रों पर अधिकार करता हुआ निरन्तर बढ़ता गया और वह आज का बून्दी तक जो उस समय 'पथार' अंचल के नाम से विख्यात था, पहुँच गया। यहाँ मीणा शासक से लोहा लेना सरल नहीं था। जनश्रुति है कि बूंदी घाटी पर बूंदा मीणा का पोता जेता का देवसिंह के समय अधिकार था। वह एक ब्राह्मण कन्या से विवाह करना चाहता था। ब्राह्मण देवसिंह की शरण में गया, उसने ब्राह्मण को युक्ति सुझाई कि एक मंडप बनाओ, खूब शराब का प्रबन्ध करो। मंडप में बिठाकर इतना पिलाओ कि होश ही नहीं रहे। ऐसा ही किया गया, ब्राह्मण ने बारात बुलाई। मीणों की शराब से मेजबानी की। योजनानुसार देवसिंह आया और उसने शराब में मदमस्त मीणों को मारकर बूंदी पर अधिकार कर लिया।

 महाकवि सूर्यमल ने "वंश भास्कर' में एक अलग कथा लिखी है। उनके अनुसार उन दिनों बूंदी के आसपास मीणों का प्रभुत्व था और उनका सरदार जेता काफी शक्तिशाली था। उसकी दिली इच्छा थी कि वह राजपूतों से बेटी व्यवहार करे। इस निमित्त उसने अपने कामदार जसराज चौहान की पुत्रियों से अपने बेटों का विवाह करने का प्रस्ताव किया। जसराज इस पर सहमत नहीं था और पास ही के राज्य के देवसिंह से भेंट की और सारी बात बतलाई। देवसिंह तो ऐसा ही चाहता था, राज्य विस्तार का अच्छा अवसर जानकर जनश्रुति में बतलाई योजनानुसार ही जसराज को करने को कहा और जसराज ने उसके बताये अनुसार मंडप में आग लगवा दी। बहुत से मीणे आग में स्वाह हो गये और बच गये उन्हें देवसिंह ने मौत के घाट उतार दिया।

 बस, अब क्या था, मीणा सम्भल नहीं पाये और देवसिंह ने उन्हें बूंदी से खदेड़ दिया और स्वयं वहाँ का शासक बन गया। अब बूंदी   पर हाड़ा  चौहानों का  अधिकार हो  गया। देवसिंह बहुत नीतिज्ञ था।  उसे पता था कि   उस क्षेत्र  में  मीणाओं का बाहुल्य है, अत: उसने   उनके क ई   सरदारों  को अपने  विश्वास में  लिया और उन्हें राजकार्यों   में  लगाया।  इसका परिणाम  अच्छा रहा। कुछ ही समय में पूरे क्षेत्र में देवसिंह का प्रभाव जम गया और आम जन   में भी  उसे भरपूर सहयोग दिया। अब  राजधानी    बनानी थी।    देवसिंह  ने इस   कार्य को भी पूरा   किया और संवत  1398, आषाढ़ वदि नवमी, मंगलवार को बूंदी नगर की स्थापना की। इस समय देवसिंह के पिता बंगदेव जीवित थे और भैंसरोडगढ़ में  निवास करते थे, लेकिन राजधानी के रूप में बम्बावदा थी। पिता की मृत्यु के बाद देवसिंह बम्बावदा अपने पुत्र हरिदेव को  देकर स्वयं बून्दी रहने लगा।

 
यूं बून्दी पर हाड़ाओं के अधिकार को लेकर कई और जनश्रुतियां है पर देवसिंह के कौशल और प्रतिभा को लेकर इतिहासकारों में कोई मतभेद नहीं है। फिर भी बून्दी के इतिहास को लेकर कई तथ्यों का प्रकाश में आना शेष है। चूंकि देवसिंह से पूर्व उसके दादा विजयपाल (विजिपाल) का इस क्षेत्र में आगमन हो चुका था। इनसे सम्बन्धित एक शिलालेख वि.सं. 1354 का बून्दी से दो कि.मी. दूर स्थित केदारेश्वर महादेव के मन्दिर में लगा हुआ है जो ऐतिहासिक तिथियों की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। इस एक शिलालेख से ही यह बात धुंध में है कि अगर विजयपाल और उससे पूर्व किन-किन चौहान शासकों ने इस क्षेत्र में विजय प्राप्त करने की चेष्टा की थी?

 खैर, जो भी हो आज जो इतिहास हमारे पास है उसके अनुसार चौहान वंश का हाड़ा शाखा का शुभारम्भ भले ही बम्बावदा से हुआ हो पर उसे ख्याति बून्दी और फिर कोटा से मिली जिसका पूरा श्रेय देवसिंह को जाता है। देवसिंह ने मात्र बून्दी फतह नहीं की बल्कि दासों से पाटण, गोड़ों से गैणोली, लखेरी और दहिया जसकरणा से करवाड के परगने लेकर राज्य का विस्तार भी किया। यही नहीं अपने राज्य की सुरक्षा बनी रहे इस दृष्टि से मेवाड़ से भी देवसिंह पूर्ण आत्मिक सम्बन्ध बनाये रखे। देवसिंह को यूं बहुत कम समय मिला मगर जो भी समय मिला उसमें उसने अमरयूणा से पूर्व का और गंगेश्वरी देवी का मंदिर और एक बावड़ी अपने पिता की स्मृति में बनवाई। यहीं देवसिंह ने अपने संघर्षशील जीवन की अन्तिम सास ली।

 (लेखक – तेजसिंह तरुण “राजस्थान के सूरमा” )
 

कान्हड़देव

जालौर के वीर शासक कान्हड़देव का नाम आते ही लेखकों की कलमें ठहर जाती है तो पढ़ने वालों के कलेजे सिंहर उठते हैं। कारण यह नहीं कि उसने अपने से कई गुना शक्तिशाली दुश्मन को मात दी और अंत में बलिदान दिया। यह तो राजस्थान की उस समय की पहचान थी। कलम के ठहरने और कलेजों के कांपने का कारण यह था कि कान्हड़देव जैसे साहसी एवं पराक्रमी शासक का अंत ऐसा क्यों हुआ ? क्यों नहीं अन्य शासक उसके साथ हुए, क्यों नहीं सोचा कि कान्हड़देव की पराजय के बाद अन्य शासकों का क्या होगा। शायद डॉ. के.एस. लाल ने अपने इतिहास ग्रंथ 'खलजी वंश का इतिहास' में सही लिखा है कि'पराधीनता से घृणा करने वाले राजपूतों के पास शौर्य था, किंतु एकता की भावना नहीं थी। कुछेक ने प्रबल प्रतिरोध किया, किंतु उनमें से कोई भी अकेला दिल्ली के सुल्तान के सम्मुख नगण्य था। यदि दो या तीन राजपूत राजा भी सुल्तान के विरुद्ध एक हो जाते तो वे उसे पराजित करने में सफल होते।'
 
डॉ. के.एस. लाल की  उक्त  टिप्पणी  बहुत  ही   सटीक है।   कान्हड़देव  की   वंश  परम्परा के   सम्बन्ध में ही उदयपुर के ख्यातिनाम लेखक एवं इतिहासवेता डॉ. शक्तिकुमार शर्मा 'शकुन्त' ने लिखा है   कि- 'चाहमान   (चौहान) के वंशजों ने यायव्य कोण से आने वाले विदेशियों के आक्रमणों का न केवल तीव्र प्रतिरोध किया अपितु 300  वर्षों तक उनको जमने नहीं दिया। फिर चाहे वह मुहम्मद गजनी हो, गौरी हो  अथवा अलाउद्दीन खिलजी हो, चौहानों के   प्रधान पुरुषों ने उन्हें चुनौती दी, उनके अत्याचारों के रथ को रोके रखा तथा अन्त में आत्मबलिदान देकर भी देश और धर्म की रक्षा अन्तिम क्षण तक करते रहे।
 
बस, यही सब  कुछ  हुआ था  इस  चौहान वं श के  यशस्वी  वीर प्रधान पुरुष  जालौर के राजा कान्हड़देव के साथ भी। पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद चौहानों की एक शाखा रणथंभौर   चली गई  तो दूसरी शाखा नाडौल और नाडौल से एक शाखा जालौर में स्थापित हो गई। कीर्तिपाल से प्रारम्भ हुई यह शाखा समरसिंह,  उदयसिंह, चा चकदेव, सामन्तसिंह से होती हुई कान्हड़देव तक पहुँची। किशोरावस्था से अपने पिता का हाथ बांटने के निमित्त कान्हड़देव शासन र्यों में रुचि लेना शुरूकर दिया था। संवत 1355 में दिली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात जाने के लिए  मारवाड़ का रास्ता चुना। कान्हड़देव को इस समय तक अलाउद्दीन के मनसूबे का पता लग चुका था। वह अपने इस अभिमान के तहत  सोमनाथ के  मन्दिर को  तोड़ना चाहता था। उसने कान्हड़देव को खिलअत से सुशोभित करने का लालच भी दिया मगर वह किसी भी तरह तैयार नहीं हुआ और सुल्तान के पत्र के जवाब में पत्र लिखकर साफ-साफ लिख भेजा-'तुम्हारी सेना अपने प्रयाण के रास्ते में आग लगा देती है, उसके साथ विष देने वाले व्यक्ति होते हैं, वह महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार करती है, ब्राह्मणों का दमन करती है और गायों का वध करती है, यह सब कुछ हमारे धर्म के अनुकूल नहीं है, अत: हम तुम्हें यह मार्ग नहीं दे सकते हैं।
 
कान्हड़देव के इस उत्तर से अलाउद्दीन खिलजी का क्रोधित होना स्वाभाविक था। उसने समूचे मारवाड़ से निपटने का मन बना लिया। गुजरात अभियान तो उसने और रास्ते से पूरा कर लिया लेकिन वह कान्हड़देव से निपटने की तैयारी में जुट गया और अपने सेनापति उलुग खां को गुजरात से वापसी पर जालौर पर आक्रमण का आदेश दिया।उलुगखां अपने सुल्तान के आदेशानुसार मारवाड़ की और बढ़ा ओर सर्वप्रथम सकराणा दुर्ग पर आक्रमण किया। सकाराणा उस समय कान्हड़देव के प्रधान जेता के जिम्मे था। द्वार बन्द था। मुस्लिम सेनाओं ने दुर्ग के बाहर जमकर लूटपाट मचाई, लेकिन यह अधिक देर नहीं चली और जेता ने दुर्ग से बाहर निकलकर ऐसा हमला बोला जो उलुगखां की कल्पना से बाहर था, उसके पैर उखड़ गये और भाग खड़ा हुआ। जेता मुस्लिम सेना से सोमनाथ के मन्दिर से लाई पांच मूर्तियां प्राप्त करने में सफल रहा। इतिहास में अब तक इस युद्ध पर अधिक प्रकाश नहीं डाला गया है लेकिन गुजरात लूटनेवाली सुल्तान की सेना को पराजित करना आसान काम नहीं हो सकता था, अत: निश्चित ही जालौर विजय से पूर्व यह युद्ध कम नहीं रहा होगा। स्मरण रहे कि इस युद्ध में सुल्तान का भतीजा मलिक एजुद्दीन और नुसरत खां के भाई के मरने का भी उल्लेख है।
 
इस पराजय के बाद 1308 ई. में. अलाउद्दीन ने कान्हड़देव को अपने विश्वस्त सेनानायक व  कुशल राजनीतिज्ञ के द्वारा दरबार में बुलाया, बातों में आ गया और वह चला  भी गया। जब पूरा  दरबार लगा था,  अलाउद्दीन ने अपने आपको दूसरा सिकन्दर घोषित करते हुए कहा कि भारत में कोई भी हिन्दू या राजपूत राजा  नहीं है जो उसके सामने  किंचित् भी टिक सके।  कान्हड़देव को यह बात खटक गई, उसका स्वाभिमान जग उठा, उसने तलवार निकाल ली  और बोल पड़ा-"आप ऐसा न  कहें, मैं हूँ,  यदि आपको जीत नहीं सका तो युद्ध करके मर तो सकता हूँ, राजपूत अपनी इस मृत्यु को मंगल-मृत्यु मानता है।' यह कह  कान्हड़देव अलाउद्दीन खिलजी का दरबार छोड़कर वहाँ से चल पड़ा और जालौर आ गया। सुल्तान ने कान्हड़देव के इस व्यवहार को बहुत ही बुरा माना और 1311 ई. में तुरन्त दंड देने के लिए जालौर की ओर अपनी सेना भेजी। डॉ. के.एस. लाल का कहना है कि राजपूतों ने शाही पक्षों को अनेक मुठभेड़ों में पराजित किया और उन्हें अनेकबार पीछे धकेल दिया। उन्होंने यह भी माना कि जालौर का युद्ध भयानक था और संभवत: दीर्घकालीन भी। गुजराती महाकाव्य 'कान्हड़दे प्रबन्ध' के अनुसार संघर्ष कुछ वर्षों तक चला और शाही सेनाओं को अनेक बार मुँह की खानी पड़ी। इन अपमान जनक पराजयों के समाचारों ने सुल्तान को उतेजित कर दिया और उसने अनुभवी मलिक कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी। सुल्तान की सेना का जालौर से पूर्व ही सिवाणा के सामंत सीतलदेव ने सामना किया। दोनों के बीच ऐसा युद्ध हुआ जिसकी कलपना संभवत: सुल्तानी सेना नायकों के मस्तिष्क में थी भी नहीं। यही कारण था कि एक बार पुन: पराजय झेलनी पड़ी और वहाँ से दूर तक भागना पड़ा। सुल्तान को ज्यों ही पुन: पराजय का समाचार मिला, कहते हैं कि वह स्वयं इस बार पूरी शक्ति के साथ जालौर पर चढ़ आया।
 
अब तक सुल्तान को यह आभास अच्छी तरह हो गया था कि युद्ध में रणबांकुरे राजपूतों को पराजित करना कठिन ही नहीं असम्भव है। परिणाम स्वरूप अब सुल्तान की ओर से कूटनीतिक दांव-पेच शुरू हो गये और दुर्ग के ही एक प्रमुख भापला नामक व्यक्ति को प्रचूर धन का लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। भापला ने दुर्ग के द्वार खोल दिये और मुस्लिम सेना ने दुर्ग में प्रवेश कर लिया। दुर्ग में तैयारियां पूर्ण थी। ज्यों ही सुल्तान की सेना का प्रवेश हुआ, अन्दर राजपूतों महिलाएं जौहर करने के लिए आगे बढ़ी तो पुरुष भूखे शेरों की तहर टूट पड़े। घमासान छिड़ गया। संख्या में राजपूत कम अवश्य थे लेकिन युद्ध को देखकर ऐसा लग रहा था मानो हजारों की सेना आपस में भिड़ रही हों। यहाँ यदि यह कहा जाए तो अतिश्योति नहीं होगी कि मुट्ठीभर राजपूतों ने पुन: यह बता दिया कि वे मर सकते हैं लेकिन हारते नहीं। देखते ही देखते जालौर के दुर्ग में मरघट की शान्ति पसर गई। 18 वर्ष का संघर्ष समाप्त हो गया। कान्हड़देव का क्या हुआ, इतिहास के स्रोत मौन है लेकिन जालौर का पतन हो गया और साथ ही उस शौर्य गाथा को भी विराम मिल गया जिसका प्रारम्भ चौहान वंशीय वीर-पुत्र कान्हड़देव ने किया था।
 
अलाउद्दीन को जालौर-विजय की खुशी अवश्य थी, लेकिन उसने यह समझने में किंचित् भी भूल नहीं की कि राजपूताने को जीतना कठिन है। यही कारण है कि इस विजय के उपरांत उसने यहाँ के राजपूत शासकों के संग मिलकर चलने में ही अपनी भलाई समझी और फिर कोई बड़ा अभियान नहीं चलाया। स्वयं डॉ. के.एस. लाल ने अपनी पुस्तक 'खलजी वंश का इतिहास' के पृष्ठ 114 पर लिखा है.राजपूताना पर पूर्ण आधिपत्य असंभव था और वहाँ अलाउद्दीन की सफलता संदिग्ध थी।" अपनी इस बात को स्पष्ट करते हुए डॉ. लाल लिखते हैं कि-'राजपूताना में सुल्तान की विजय स्वल्पकालीन रही, देशप्रेम और सम्मान के लिए मर मिटनेवाले राजपूतों ने कभी भी अलाउद्दीन के प्रांतपतियों के सम्मुख समर्पण नहीं किया। यदि उनकी पूर्ण पराजय हो जाती तो वे अच्छी तरह जानते थे कि किसी प्रकार अपमानकारी आक्रमण से स्वयं को और अपने परिवार को मुक्त करना चाहिए, जैसे ही आक्रमण का ज्वार उतर जाता वे अपने प्रदेशों पर पुन: अपना अधिकार जमा लेते। परिणाम यह रहा कि राजपूताना पर अलाउद्दीन का अधिकार सदैव संदिग्ध ही रहा। रणथम्भौर, चित्तौड़ उसके जीवनकाल में ही अधिपत्य से बाहर हो गये। जालौर भी विजय के शीघ्र बाद ही स्वतन्त्र हो गया। कारण स्पष्ट था, यहाँ के जन्मजात योद्धाओं की इस वीर भूमि की एक न एक रियासत दिल्ली सल्तनत की शक्ति का विरोध हमेशा करती रही, चाहे बाद में विश्व का सर्वशक्तिमान सम्राट अकबर ही क्यों न हो, प्रताप ने उसे भी ललकारा था और अनवरत संघर्ष किया था।
 (लेखक तेजसिंह तरुण राजस्थान के सूरमा” )

Thursday 19 January 2017

रावत चूंडा

स्वामिभक्ति, शौर्य, पराक्रम, कर्तव्य परायणता और न्याय की प्रतिमूर्ति के रूप में चूंडा को जाना जाता है। मेवाड़ में चूंडा और उसके वंशजों की जो ख्याति आज तक है उसका कारण उनकी मातृभूमि के प्रति निष्ठा व ललक का होना है। बात-बात में एक पुत्र द्वारा अपने पिता के मनोभावों को पढ़कर अपने लिए आये सगाई का प्रस्ताव पिता के हक में त्याग देना और फिर राजगद्दी के हक को भी अत्यन्त सहजता से छोड़ देना केवल और केवल चूंडा जैसे बिरले का ही काम था। यही वे कारण थे कि वह सभी के सम्मान का पात्र बन गया। इस सम्बन्ध में राजस्थान के अनेक कलम धर्मियों व इतिहासकारों ने खूब लिखा हैं।
 

सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने चूडा का यह सम्पूर्ण वृतांत इस प्रकार प्रस्तुत किया है-'महाराणा (लाखा) की वृद्धावस्था में राठौड़ रणमल की बहिन हंसाबाई के सम्बन्ध का नारियल महाराणा के कुंवर चूंडा के लिए आया, उस समय महाराणा ने हंसी में कहा कि 'जवानों के लिए नारियल आते हैं, हम जैसे बूढ़ों के लिए कौन भेजे ?" यह बात सुनते ही पितृभक्त चूडा के मन में यह भाव उत्पन्न हुआ कि मेरे पिता के मन में विवाह करने की इच्छा है, इसी से प्रेरित होकर उसने राव रणमल से कहलाया कि आप अपनी बहिन का विवाह महाराणा से करदे। उसने इस बात को अस्वीकार करते हुए कहा कि महाराणा के ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण आप राज्य के उत्तराधिकारी है। अत: आपसे विवाह करने पर यदि मेरी बहिन के पुत्र उत्पन्न हुआ तो वह मेवाड़ का स्वामी बनेगा, परन्तु महाराणा के साथ विवाह करने से मेरे भांजे को चाकरी में निर्वाह करना पड़ेगा। इस पर चूंडा ने कहा कि यदि आपकी बहिन के पुत्र हुआ तो वह मेवाड़ का स्वामी बनेगा और मैं उसका सेवक बनकर रहूँगा। इसके उत्तर में रणमल ने कहा-मेवाड़ जैसे राज्य का अधिकार कौन छोड़ सकता है? यह तो कहने की बात है। तो चूंडा ने एकलिंग जी की शपथ खाकर कहा कि-मैं इस बात के लिए इकरार लिख देता हूँ, आप निश्चिंत रहिए। फिर उसने अपने पिता के विरुद्ध आग्रह करके उनको नई शादी हेतु बाध्य किया और इस आज्ञा का प्रतिज्ञा पत्र लिख दिया कि यदि इस विवाह से पुत्र उत्पन्न हुआ तो वह राज्य का स्वामी होगा महाराणा ने हंसाबाई से विवाह किया जिससे मोकल का जन्म हुआ।"
 

चूंडा द्वारा सत्ता त्याग के बारे में राजस्थानी गीतों, बड़वों व राणीमंगों की पोथियों में कुछ अलग-अलग रूप में मिलता है। सभी में चूंडा की प्रशंसा की गई, करें भी क्यों नहीं ऐसा उदाहरण और है कहाँ ? तभी तो जय माँ राठौड़ कल्याण संस्थान द्वारा प्रकाशित 'राजस्थान के सूरमा' में श्रीमती मायासिंह कुनाड़ी ने एक कवि की इन सुन्दर पंक्तियों के माध्यम से कहा कि चवरी चढ़ लाखो फिरे, फिरे बीनणी लार। चूंडा री कीरत फिरै, सात समुंदरा पार। सत्ता-त्याग के अतिरिक्त चूडा ने आगे भी वह किया, जो बहुत कम लोग ही कर सकते हैं। हंसाबाई और लाखा के इस विवाह के तेरह माह बाद राजकुमार मोकल का जन्म हुआ। लेकिन कुछ समय पश्चात ही महाराणा लाखा का स्वर्गवास हो गया। वीर विनोद के अनुसार पति के निधन के बाद सती होने को उद्धत हुई और हंसाबाई ने चूंडा को बुलाकर पूछा कि तुमने मेरे पुत्र के लिए कौनसा परगना देने की सोची है? इस पर चूंडा ने कहा-'हे माता, आपका पुत्र मेवाड़ का मालिक है और मैं उसका सेवक हूँ, आपको अभी सती नहीं होना चाहिए, आप तो राजमाता बनकर रहें।
 
चूंडा ने मोकल को चित्तौड़ के सिंहासन पर आरुढ़ कर सर्वप्रथम नज़र दिखलाई की रस्म निभाई  व मोकल के लिए सत्ता का परित्याग कर चूंडा ने अपने वचनों का निर्वाहन करते हुए मेवाड़ का राज्य प्रबन्ध-कार्य करने लगा। इसके प्रशासन के अधीन मेवाड़ में सुव्यवस्थित शासन चलने लगा। वीर विनोद (पृष्ठ310, भाग-1) में श्यामलदास चूंडा की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं-चूंडा बहुत लायक और बहादुर सरदार था, वह हर तरह से न्याय कर अपनी प्रजा को खुशहाल रखता था। उसके अच्छे प्रशासन-प्रबन्धन के कारण राज्य और प्रजा दोनों सुदृढ़ हुए।
 
मेवाड़-त्याग-कहते हैं कि जब कोई व्यक्ति अच्छा कार्य करता है तो भी कुछ स्वार्थों से बंधे ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें उसके अच्छे कार्य नहीं भाते हैं। ऐसा ही कुछ चूंडा के साथ भी हुआ। उसके रहते सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन कतिपय सरदारों को ठीक नहीं लग रहा था। वे अपने को सुतावस्था में पा रहे थे। वे अपनी बहन के रहते मेवाड़ पर हावी होना चाहते थे, लेकिन जब ऐसा हुआ तो रणमल आदि ने हंसाबाई के कान भरने शुरू कर दिये। अंतत: हंसाबाई के मन में यह बिठाने में सफल हो गये कि अभी तो सब कुछ ठीक चल रहा है लेकिन चूंडा अवसर मिलते ही मोकल को पद्च्युत कर स्वयं मेवाड़ की राजगद्दी पर आसीन हो जायेगा। अपने बाल-पुत्र के मोह में हंसाबाई को राठौड़ सरदारों की बात ठीक लगी और एक दिन चूंडा को बुलाकर कहा-'या तो तुम मेवाड़ छोड दो या जहाँ तुम चाहो वहाँ मैं अपने पुत्र सहित चली जाऊँ।"
 

चूंडा को सब कुछ समझने में देर नहीं लगी और उसने तत्काल राज्य प्रबन्ध और मोकल की रक्षा का दायित्व अपने भाई राघवदेव को सौंपकर मेवाड़ राज्य की सीमा त्याग कर मांडू के सुल्तान होशंगशाह के पास चला गया।  सुल्तान चूंडा से बहुत पहले से प्रभावित तो था ही, उसने चूंडा का यथोचित सम्मान किया और 42 लाख का मंदसौर का पट्टा जागीर में दिया तथा रावत की उपाधि प्रदान की। इसके पश्चात् रणमल ने षड़यंत्रपूर्वक चूंडा के भाई राघवदेव की हत्या करवा दी और मेवाड़ पर अपना वर्चस्व बढ़ाने के निमित्त प्रमुख पदों पर राठौड़ सरदारों को बिठा दिया। इसी बीच रणमल ने मेवाड़ी सेना के सहयोग से अपने मंडोर पर विजय प्राप्त करली। अब वह अधिकतर मंडोर ही रहने लगा जिसके कारण मेवाड़ में भी यहाँ के चाचा व मेरा नामक पासवानिया पुत्रों का जोर बढ़ गया और मौका देखकर एक दिन मोकल की हत्या कर दी।


राव रणमल की जब महाराणा मोकल की हत्या की सूचना मिली तो उसने तत्काल चित्तौड़ आकर मोकल के पुत्र कुंभा को गद्दी पर बिठाया और शासन प्रबन्ध पुन: अपने हाथों में ले लिया। रणमल को लगा कि मेवाड़ की आन्तरिक स्थिति ठीक नहीं है तो वह मेवाड़-मारवाड़ को एक करने के षड़यन्त्र में लग गया। और वह मोकल के उत्तराधिकारी कुंभा को रास्ते से हटाने में लग गया। एकदिन नशे में रणमल ने अपने मन की बात अपनी प्रेमिका भारमली से कह दी तो भारमली जो प्रेमिका तो रणमल की थी लेकिन थी मेवाड़ की माटी में जन्मी मेवाड़ की बेटी। उससे रहा नहीं गया और उसने वह बात राजमाता को बतादी।
 
 इस सम्बन्ध में 'सलूम्बर का इतिहास' की विद्वान लेखिका विमला भण्डारी ने पृष्ठ 29 पर लिखा है कि राजमाता के नाम पर मतभेद है। ग्रंथों में कहीं राजमाता सौभाग्यदेवी व कहीं राजदादी हसाबाई का उल्लेख मिलता है।  जो भी हो लेकिन इस प्रसंग में भारमली की भूमिका अहं थी जिसके कारण मेवाड़ रणमल के हाथों में जाने से बच गया। विमला भंडारी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि राजमाता को इस संकट की घड़ी में चूंडा की याद ही आई और राणा कुंभा की सहमती पर एक पत्र लिखा, उसमें लिखा था-"तुम्हारे पिता का राज्य जाता है, अब यह कागज पढ़ते ही आओ और तुम ही इस राज्य को सम्भालो, नहीं तो कहोगे कि कैसी कुघराने की आई जिसने सीसोदिया का राज्य गवा दिया।'
 

चित्तौड़ के समाचार पाते ही चूंडा अपने कर्तव्य-निर्वहन के लिए मेवाड़ की और कूच कर गया। रणमल को जब पता लगा तो उसने बहुत विरोध किया लेकन स्थितियां बदल चुकी थी। पूर्व योजना के अनुसार एक दिन भारमली ने रणमल को जमकर शराब पिलाई और जब वह पूर्ण नशे में डूब गया तो नरबद और उसके साथियों ने रणमल का काम तमाम कर दिया।
 

रणमल की मृत्यु का समाचार तेजी से चित्तौड़ के किले पर और नीचे तलहटी में ज्योंही पहुँचा रणमल का पुत्र जोधा अपने साथियों के साथ वहाँ से भाग निकला। चूंडा ने उसका पीछा मंडोर तक किया लेकिन अंतत: वह जान बचाने में सफल रहा मगर मंडोर उसके हाथ से निकल गया और मेवाड़ के हाथों में आ गया।

चूंडा ने रणमल के सफाये के बाद मेवाड़ की सीमाओं का खूब प्रसार किया। कई छोटे-बड़े युद्धों में सफलता प्राप्त की। बाद में मंडोर पर भी जोधा का अधिकार तब हुआ जब राजदादी हंसाबाई के कहने पर कुंभा की मौन स्वीकृति हुई। ऐसे में चूंडा शांत रहा। चूंडा ने महाराणा के कार्यों में दखल न देने की सौगंध जो ली थी।
 

रावत चूंडा ने राज्य के अपने हक को त्यागकर  अपने वचन का निर्वहन जिस तरह किया वह न केवल राजस्थान के इतिहास में बल्कि सम्पूर्ण विश्व के इतिहास में एक ऐसा स्वर्णिम अध्याय है, जो सदैव अविस्मरणीय रहेगा। राजत्याग और फिर वचनानुसार अपने छोटे भाई को राजगद्दी पर आसीन करना तथा उसके राज्य की रक्षा हेतु निरन्तर लगे रहने को देखकर तत्कालीन एवं बाद के कई कलमधर्मियों द्वारा चूंडा के लिए जितना लिखा गया वो और किसी के लिए फिर नहीं लिखा गया। चूंडा पर लिखी पंक्तियां तो आज भी जन-मानस के मुँह पर सहज ही आ जाती है कि
लाखा स्वर्ग सिधारता, मोकल बांधी पाग।
चित्रकूट रक्षा कारण, चूंडा बांधी खाग।
 

पुत्र की ऐसी पितृभक्ति देख महाराणा लाखा ने यह नियम पारित किया कि मेवाड़ राज्य की ओर से जो पट्टे-परवाने जारी हो उस पर भाले था अंकन चूंडा और उसके पाटवी वंशज ही करेंगे। कहने का तात्पर्य है कि चूंडा ने राज्याधिकार भले ही छोड़ दिया था किंतु मेवाड़ उसके त्याग और तत्पश्चात् राज्य की सुरक्षा हेतु उसके द्वारा किये गये प्रयासों को नहीं भूल सका। चूंडा का सुयश आज भी चिर अमर है और आगे भी वह अमर ही रहेगा।
 

 (लेखक तेजसिंह तरुण राजस्थान के सूरमा” ) 
 
 

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