Saturday, 14 September 2013

गुमशुदा हमसफर

 मुद्दतों पहले
रख छोड़ा था कहीं
एक लम्हे को मैंने,
वक़्त के
धागे से  बांध कर ।

धागे का  दूसरा छोर
दिल के किसी कोने में  
ना जाने क्यों  
ताउम्र रह गया
कहीं उलझकर ।

अक्सर वही लम्हा
पाकर तन्हा  मुझे
ले जाता है कहीं
दूर  धुंधले-से
रास्तों पे खींचकर ।

देखकर मैं, उन
धुंधले  मगर
पहचाने से रास्तों को,
तलाशता हूँ देर तक
वो गुमशुदा हमसफर....

-विक्रम

 


 

 

 
 


 
 

Saturday, 27 July 2013

- यादों का ज्वार-भाटा–

जब दिल के
समुन्द्र मे
तेरी यादों का ज्वार-भाटा
ठांठे मारने लगता है।  
तब में,
कागज की कस्ती और
कलम की पतवार लेकर
निकल पड़ता हूँ
समझाने
उन उफनती
लहरों को,
जो बिखर जाना
चाहती है,
तोड़कर
दिल की
मेड़ को ....
 
-विक्रम

Tuesday, 9 July 2013

मास्टर जी (व्यंग)


जब किसी स्कूल के प्रांगण में छोटे बच्चो को मस्ती करते देखता हूँ तो मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ जाते हैं। उन दिनो  हम स्कूल के अंदर नहीं गेट के बाहर या फिर स्कूल के रास्ते के बीच में मस्ती करते थे। उन दिनों हमारे मास्टर जी को किसी कानून का डर नहीं होता था इसलिए स्कूल के अंदर मस्ती करने पर वो हमारी मस्ती जल्द ही उतार देते थे। लेकिन बाहर भी हमे ऐसा करते हुए कोई अध्यापक देख लेते तो, उस वक़्त तो वो कुछ नहीं बोलते थे। मगर क्लास मे होम-वर्क पूरा नहीं होने पर या किसी अन्य कारण मे हमारी धुलाई ये कहते हुए करते थे की, "आजकल बहुत उछल-कूद मचा रखी है तुम लोगों ने, बड़ी चर्बी चढ़ी है तुम सब पे।" इसी तरह पिटते-पिटते हम कुछ बड़े हुये तो हमारी पिटाई का तरीका भी कुछ बड़ा हो गया, क्योंकि कान उमेठना ,चांटा मारना तो अब गुदगुदी-सी फिलिंग देते थे।  

 अब कान पकड़ कर मुर्गा बनाना, शर्ट को पीठ से उठाकर ढीले हाथ से थप्पड़ मारना, सावधान की मुद्रा मे खड़ा कर के गाल पे अचानक घात लगाकर चांटा मारना और उस चांटे से बचने की कोशिश की तो बोनस के तौर पे दो चार चांटे और मिलते थे। कुछ अध्यापक तो थर्ड डिग्री के मास्टर थे।  वो हथेली पे डंडा नहीं मारते थे बल्कि हथेली को उल्टी करवाकर पीछे की तरफ उभरी हुई हड्डियों पे मारते थे और उसके बाद छात्र के चेहरे को गौर से देखते हुए प्रहार से उत्पन्न दर्द की अनुभूति का अंदाज़ा लगाते थे।  अगर दर्द उनकी उम्मीद पे खरा नहीं उतरता था तो ये क्रम तब तक दोहराया जाता जब दर्द खुद शरीर से बाहर आकर चिल्ला चिल्ला के नहीं कह देता की बस!
 

कुछ उम्रदराज अध्यापक गीली बेंत या लकड़ी का उपयोग करते थे, क्योंकि उनके शरीर मे उतनी ऊर्जा नहीं रह गई  थी की वो हम जैसे 25,30 छात्रों  को थप्पड़ से सुधार सकें। वो बेंत हमसे ही किसी पेड़ से तुड़वाते थे और फिर तोड़कर लाई गई लकड़ियों में से अपनी पसंद की लकड़ी छाँटते थे। इसके बाद वो हमे एक लाइन मे खड़ा करवाकर और सबको कहते की अपनी अपनी दोनों हथेलियाँ सामने रखो। सभी लड़को के हाथ प्रसाद लेने की मुद्रा मे हो जाने पर  लाइन के एक सिरे से दूसरे सिरे तक गीली बेंत से हमारी हथेलियों पे हारमोनियम बजाते हुये दूसरे सिरे तक चले जाते। मुझ जैसे शातिर ऐसे मे सुर चुराने की कोशिश करते और अपनी हथेली पीछे खींच लेते। मगर लय बिगड़ने पर तुरंत पकड़ मे आ जाता और फिर मुझे लाइन मेँ अलग से छाँटकर बड़ी तन्मयता से मुझपर तबला वादन का अभ्यास किया जाता।  इस तरह की इकलौती पिटाई मे बाकी छात्र अपना दर्द भूल मेरी पिटाई का लुत्फ उठाते थे

 
मगर हम भी ना जाने उस वक़्त किस मिट्टी के बने थे की पहले पीरियड मे पिटने के बावजूद दूसरे पीरियड मे भी पिटने के लिए बिलकुल तैयार रहते थे। लेकिन ये समझ नहीं आता की उन दिनों हम लोग पढ़ाई मे कमजोर थे, या हमारे अध्यापक कुछ ज्यादा ही पीटने के शौकीन थे, या फिर हमे ही पिटाई का चस्का लग गया था। सबसे शर्मनाक हालात तब पैदा होते जब कोई एक मार खाता था, क्योंकि पिटाई के बाद पूरी क्लास फिर उसका जमकर मज़ाक उड़ाती थी। मगर ये खुशी भी बहुत अल्प होती थी और कुछ समय बाद वो हंसने वाले लड़के गीली बेंत से अपनी कठोर त्वचा को मुलायम करवाते नजर आते थे। मगर इतनी धुनाई के बाद भी हमारे मास्टर जी ने, आज के टीचर की तरह हमे अपाहिज नहीं किया। उनकी पिटाई आज भी हमारा मार्गदर्शन करती है।  

 
- विक्रम
   

   

 

Sunday, 30 June 2013

- दीवारें –

गाँव से उस दिन काकी की मौत की खबर सुनकर बहुत अफसोस हुआ। मेरा उनसे माँ बेटे का सा रिश्ता बन गया था। बचपन मे में रोजाना काकी के घर उनके दोनों बड़े बेटों मोहन और सोहन के साथ खेला करता था। उनके दो और बेटे थे जो उस वक्त बहुत छोटे थे।

काकी मुझे भी अपने बच्चो की भांति प्यार करती थी और में काकी के निश्चल और ममता से सरोबर प्यार मे डूबकर घर जाना ही भूल जाता था। माँ मुझे अक्सर उनके घर से जबर्दस्ती खींच कर घर ले आती थी मगर में फिर से कोई बहाना बनाकर भाग आता था।

में रात मे अक्सर काकी के घर मे ही मोहन और सोहन के साथ सो जाता था। घर काफी बड़ा था लेकिन हम लोग गर्मियों मे घर के बाहर के खुले अहाते मे सोते थे। रातभर खुले आसमान के नीचे खुली हवा मे सोना किसी जन्नत से कम ना होता था। हम सुबहा देर तक सोये रहते। मोहन और सोहन अक्सर उठ जाते थे मगर में सोया रहता। फिर सुबह माँ आती और काकी से बोलती की तुम इसको क्यों उठती, तो काकी कहती सोने दो बच्चा है ,अपने आप उठ जाएगा अभी। लेकिन काकी के मना करने पर माँ मुझे उठाकर घर ले जाती।

वक़्त गुजरता रहा और वक़्त के साथ साथ हम लोग भी बड़े हो गए, मेरी सरकारी नौकरी लगने के बाद हम लोग गाँव से शहर मे ही आकर बस गए, और फिर धीरे धीरे  गाँव में आना जाना भी एक तरह से ख़तम हो गया।

लगभग आठ साल पहले मोहन और सोहन की शादी मे और उसके चार साल बाद बाद उनके दोनों छोटे भाइयों की शादी मे हम लोग गाँव गए थे। काफी सालों बाद काकी से मिला तो काकी देखते ही रो पड़ी और मुझे अपने पास बैठाकर माँ ,बाबूजी और बाकी सदस्यों का हाल पूछती रही और साथ ही मोहन और सोहन की बहूओं को आदेश पे आदेश दिये जा रही थी की लड़के के लिए दूध लेकर आओ, मिठाई लेकर आओ , और हाँ दूध मे मलाई जरुर डालके लाना इसको बहुत पसंद है, कहते हुये काकी हँसकर मेरे सिर पर अपने झुर्रीदार हाथ फिराती।

उसके बाद जब पिछले साल किसी काम से गाँव जाना हुआ तो काकी से मिलने की ललक को नहीं रोक पाया और काकी के घर की तरफ चल पड़ा। उस वक्त काकी से मिले लगभग चार साल हो गए थे। काकी का घर काफी बदला हुआ सा लगा। खुले अहाते के चारों तरफ ऊंची चारदीवारी बना दी गई दी। पहले जहां अहाते मे घुसने का एक ही रास्ता था अब वहाँ चारदीवारी मे अलग अलग चार दरवाजे नजर आ रहे थे। में सोच विचारकर एक दरवाजे मे घुस गया। वहाँ बचपन का दोस्त मोहन बैठा था, उस से मिलने के बाद मैंने पूछा, “काकी कहाँ है  ?” जवाब मे मोहन ने एक तरफ इशारा करके कहा की वहाँ अजय के घर मे हैं। मैं उसका जवाब सुनकर भौचक्का सा रह गया। मोहन से काफी बात करने के बाद पता चला की वो चारों भाई अलग अलग हो गए हैं और अब काकी छोटे बेटे अजय के साथ बगल वाले घर मे रहती है।

में बड़े दुखी मन से मोहन के घर से बाहर आया। मैंने अपने चारों तरफ नजर घुमाकर वो अहाता तलाशने की कोशिश की जहां हमारा बचपन गुजरा था। मगर अब वहाँ सिर्फ दीवारें ही दीवारें नज़र आ रही थी। बाहर आकर चारदीवारी से एक दूसरे घर मे घुसा जो मोहन के अनुसार अजय का था। घर मे घुसते ही  चूल्हे के सामने काकी को बैठा पाया। उनके पास जाकर उनके पैर छूए और पास मे ही जमीन पर बैठ गया। जाड़े का मौसम था सो चूल्हे के सामने बैठकर काकी से बात करके मैं फिर से बचपन में खो जाना चाहता था। मुझे पहचानकर काकी बहुत खुश हुई थी  इस बात का अंदाजा मुझे तब लगा जब चुपके से उन्होने आँचल से खुशी से छलक़ते आँसू पोंछ लिए थे। काकी काफी बूढ़ी लग रही थी। उनके चेहरे से थकान साफ झलक रही थी। वहीं बैठे बैठे काकी ने मेरे लिए चाय बनाई और चाय पीने के दौरान मुझसे परिवार के हालचाल लेती रही।

काकी के साथ काफी वक़्त बिताने के बाद मैंने उनसे विदा लेनी चाही और जवाब मे उन्होने सदा की भांति सिर पर हाथ फिराते हुये कहाँ था, “जब भी गाँव आओ मिलने जरूर आना बेटे, मेरा तो अब कोई भरोसा नहीं कब ऊपर से बुलावा आ जाए , ये कहकर वो हंस पड़ी थी।
 
 -विक्रम
 

Wednesday, 19 June 2013

- तेरी यादें –

 

सांझ के ढलते ही
मुझे पाकर तन्हा ,
सताने बेपन्हा
यूं दबे पांव ,
तेरी यादों का चले आना
तुम्ही कहो ये कोई बात है ?
 
बैठकर पहलू मे, मेरे
कांधे से लिपटकर, 
रातभर सिसक कर ,
देती हैं मुझे उलाहने पे उलाहना
तुम्ही कहो ये कोई बात है ?
 
अरुणोदय आँखों में, कुछ
ख्वाबों को छोड़कर,  
कुहासे को ओढ़कर 
तेरी यादों का चुपके से चले जाना
तुम्ही कहो ये कोई बात है ?


 


-विक्रम   

 

Wednesday, 5 June 2013

चेन्नई का सापड़

सन 2003 मे मैं कंपनी के काम से पहली बार दक्षिण भारत (मद्रास चैन्नई) आया था। उस दिन ट्रेन अपने निर्धारित समय से करीब 2 घंटे लेट  थी। रात के करीब 10 बजे थे तो मैंने सोचा पहले खाना खाया जाए फिर कोई होटल तलाशता हूँ स्टेशन से बाहर आकर  सामने ही कुछ दूरी पर एक  रेस्टोरेन्ट मे चला गया। अंदर ज्यादा भीड़भाड़ नहीं थी बस  दो चार लोग ही बैठे थे । मैंने एक खाली टेबल देखा और अपने समान को पास रखकर वेटर का ऑर्डर लेने के लिए इंतजार करने लगा। तभी एक लड़का आया उसने केले का बड़ा सा पत्ता सामने टेबल पर बिछा दिया और एक प्लास्टिक का छोटा सा पानी का गिलाश भी रख दिया। में कुछ  कह पाता तब तक एक और वेटर आया और उस पत्ते के ऊपर चारों चारों तरफ 4, 5 कोई सब्जी जैसी सामग्री प्रसाद स्वरूप जल्दी जल्दी रखी और जैसे आया था वैसे ही जल्दी से चला भी गया । मेरे संभलने से पहले  एक और वेटर आया और उसने एक बड़े से स्टील के प्याले को अपने हाथ मे पकड़ी चावल से भरी बाल्टी मे डाला और चावल से लबालब भरकर उसे केले के पत्ते के बीचों बीच पलट दिया।
मैं मुँह खोल पता उस से पहले एक और वेटर आया और उसने एक जग जैसा कोई बर्तन अपने हाथ मे पकड़ी बाल्टी मे डुबोया और उसमे से सब्जी का ढेर सारा रस्सा  (सांभर) चावलों पे पलट दिया जिस से पत्ते पर बाढ़ जैसे हालत पैदा हो गए।  मैं जैसे तैसे करके सांभर के बहाव को चावल का बांध बनाकर रोकने की कोशिश करने लगा  मैंने आस पास नजर घुमाकर देखा की कहीं कोई मुझे इस हालात से दो चार होते हुये देख तो नहीं रहा। पास मे बैठे दो चार लोग जो अपने रंग-रूप की वजह से पक्के मद्रासी लग रहे  थे वो  कलाई तक अपने हाथ को चावलों के ढेर मे घुसेड़ कर खाने का लुत्फ उठा रहे थे। मैंने बड़े दीन भाव से वेटर की तरफ देखा जो पहले से मेरी तरफ बड़े कौतूहल से देखे जा रहा था। मैंने मिन्नत सी करते हुये चम्मच मांगी तो उसने मुझे ऐसे घूरा जैसे मैंने उस से पैसे मांग लिए हों। वो इंकार मे गर्दन हिलाकर एक और को चला गया।
गाँव मे छोटे थे तब बड़े बूढ़े कहते थे की राजपूत लोग पत्ते (पत्तल) पे खाना नहीं खाते। लेकिन जहां बर्तन के नाम पे चम्मच तक नहीं हो वहाँ समझौता करने के सिवा कोई चारा नहीं रहता। मैंने कभी ऐसे चावल नहीं खाये थे। हमारे इधर (राजस्थान मे ) साल मे सायद 2 या 3 बार किसी त्यौहार पर ही चावल बनते हैं और वो भी घी और खांड (चीनी) के साथ खाये जाते हैं।
खैर हर तरफ से मायूस होकर मैंने सामने पड़े ढेर मे स्वाद तलाशना शुरू किया। चावल को सभी सब्जी जैसे दिखने वाले पदार्थों के साथ अलग अलग मिलाकर खाने में कुछ खाने जैसा टेस्ट  परखने की कोशिश की। मगर काफी जद्दोजहद के बाद कुछ समझ नहीं आया तो आस पास बैठे लोगों को देखने लगा जो बड़ी तल्लीनता से चावल के ढेर को समेट रहे थे। मैं उनके खाने के तरीके की ऐसे नकल करने लगा जैसे परीक्षा हाल मे परीक्षार्थी करता है। काफी माथापच्ची के बाद पेट मे कुछ उतारने मे कामयाब रहा। मगर तभी सोचने लगा की  इस पत्ता रूपी प्लेट को भी कहीं खाना तो नहीं है ?  मगर तभी सामने देखा एक महाशय अपना खाना खत्म कर चुके थे और उन्होने अपने पत्ते को एक तह मे मोड़ा और टेबल पर रखकर खड़ा हो गया। मैंने भी  तुरंत उसकी देखा देखी अपने पत्ते को फ़ोल्ड किया मगर तभी पास आकर एक  वेटर बोल पड़ा। सापड़ नल्ला एल्लुवा ?’( खाना अच्छा नहीं क्या ?)। मेरी समझ नहीं आया तो उसने टूटी फूटी हिन्दी मे दोहराया। मैंने कहाँ , “अच्छा था। फिर उसने कहा की अगर खाना अच्छा लगे तो पत्ते को अपनी तरफ फ़ोल्ड करते हैं और अच्छा ना लगे तो दूसरी तरफ फ़ोल्ड करते हैं।
इस से पहले की कुछ और गलती हो जाए मैंने जल्दी से काउंटर पर  पेमेंट पूछा था पता चला खाने का बिल था सिर्फ 12 रुपए। मैंने भुगतान किया और होटल तलाशने निकल पड़ा।       
 

शादी-विवाह और मैरिज ।

आज से पचास-पचपन साल पहले शादी-ब्याह की परम्परा कुछ अनूठी हुआ करती थी । बच्चे-बच्चियाँ साथ-साथ खेलते-कूदते कब शादी लायक हो जाते थे , कुछ पता ...