Saturday 14 September 2013

गुमशुदा हमसफर

 मुद्दतों पहले
रख छोड़ा था कहीं
एक लम्हे को मैंने,
वक़्त के
धागे से  बांध कर ।

धागे का  दूसरा छोर
दिल के किसी कोने में  
ना जाने क्यों  
ताउम्र रह गया
कहीं उलझकर ।

अक्सर वही लम्हा
पाकर तन्हा  मुझे
ले जाता है कहीं
दूर  धुंधले-से
रास्तों पे खींचकर ।

देखकर मैं, उन
धुंधले  मगर
पहचाने से रास्तों को,
तलाशता हूँ देर तक
वो गुमशुदा हमसफर....

-विक्रम

 


 

 

 
 


 
 

7 comments:

  1. बहुत ही गहन भाव के साथ अभिव्यक्ति....

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  2. आप के नाम कितने पहले तो ये बताओ ?

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  3. good morning sirji bhut accha likhte hain...badhaai

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  4. दिल को छूते शब्द ... ऐसे सभी हमसफ़र की तलाश तो सभी को होती है ... उन रास्तों पर लौटने की चाह भी होती है ... मन को छूती है आपकी रचना ...

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  5. यही वो लम्हा है अक्सर तनहाई में कुछ तो सुकून देता है
    बहुत सुन्दर भाव है !

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  6. बात आपकी, जज्बात सभी के।

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