रख छोड़ा था कहीं
एक लम्हे को मैंने,
वक़्त के
धागे से बांध कर ।
धागे का दूसरा छोर
दिल के किसी कोने में ना जाने क्यों
ताउम्र रह गया
कहीं उलझकर ।
अक्सर वही लम्हा
पाकर तन्हा मुझे ले जाता है कहीं
दूर धुंधले-से
रास्तों पे खींचकर ।
देखकर मैं, उन
धुंधले मगरपहचाने से रास्तों को,
तलाशता हूँ देर तक
वो गुमशुदा हमसफर....
-विक्रम
बहुत ही गहन भाव के साथ अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteआप के नाम कितने पहले तो ये बताओ ?
ReplyDeletegood morning sirji bhut accha likhte hain...badhaai
ReplyDeleteदिल को छूते शब्द ... ऐसे सभी हमसफ़र की तलाश तो सभी को होती है ... उन रास्तों पर लौटने की चाह भी होती है ... मन को छूती है आपकी रचना ...
ReplyDeleteयही वो लम्हा है अक्सर तनहाई में कुछ तो सुकून देता है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव है !
बात आपकी, जज्बात सभी के।
ReplyDeleteनिशब्द हूँ
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