Sunday, 17 April 2016

ख़ानदान

विजय ! तुम आज से हमारे घर ही रहना ,शादी वाला घर है इसलिए बहुत काम है । , अंकुर ने कहा।
ठीक है यार, मैं आज दोपहर बाद से वहीं आ जाता  हूँ ।
हाँ,बेटा ये आ जाएगा।, घर मे बैठा बैठा वैसे भी उकता रहा है”,विजय की माँ ने अंकुर से कहा।
आंटी , अब तो विजय की भी शादी कर ही दो “, अंकुर ने हँसते हुये कहा।
हाँ बेटे, जल्द ही कोई लड़की देखती हूँइसके लिए, विजय की माँ ने हँसते हुये कहा।

दो दिन बाद अंकुर की बहन की शादी थी। विजय और अंकुर बचपन के दोस्त थे। पढ़ाई पूरी होने के साथ ही विजय को पिछले साल नौकरी मिल गई थी और अंकुर ने गाँव मे ही अपना एक बिजनेस शुरू कर दिया था। विजय इन दिनों अंकुर की बहन की शादी के लिए छुट्टी आया हुआ था ।

 दोपहर बाद विजय अंकुर के घर चला आया,दोनों के घर आमने सामने ही थे। अंकुर के परिवार के सभी सदस्य विजय को काफी दिनों बाद आया देखकर काफी खुश हुये। विजय दिनभर काम मे हाथ बँटाता रहा। वो घर के अंदर से रसोई का सामान लाकर बाहर हलवाई को सौंप रहा था और तैयार सामान को घर के अंदर तक पहुंचा रहा था। रसोई की देखरेख की ज़िम्मेदारी अंकुर के बड़े भाई मनोज की साली अंजना की थी जो शादी मे आई हुई थी। अंजना बला की खूबसूरत मगर घरेलू टाइप की लड़की थी। इतनी सी उम्र मे वो काफी समझदार हो गई थी।

 रसोई का सामान एक दूसरे के हाथों से लेने देने मे कई बार जल्दबाज़ी में विजय और अंजना के हाथ एक दूसरे से टकराते तो वो एक दूसरे की तरह देखने लगते । शाम होते होते एक दूसरे की तरह देखने का सिलसिला और बढ़ता गया और अब हाथ जान-बूझकर टकराने लगे थे। विजय किसी ना किसी बहाने अंजना को देखने अंदर आता। अंजना की नजरे भी विजय को ही तलाशती रहती थी।  हालांकि ,शादी की गहमा-गहमी मे दोनों को एक दूसरे से बातें करने का कम ही समय मिला मगर दोनों ने इतने से वक़्त मे ही बहुत सारे सपने लिए थे।

  शादी के बाद विजय ने माँ को अंजना के बारे मे बताया और उस से शादी करने की इच्छा जाहीर की ।

ये कैसे हो सकता है ?”, विजय की माँ ने माथे पे सलवटें डालते हुये कहा।
क्यों माँ?”

बेटे उनका खानदान हमारे बराबर नहीं है ,हम लोग ऊंचे नदान से ताल्लुक रखते है ,हम छोटे ख़ानदानों में रिश्ते नहीं करते। तुम्हारे पिताजी को  पता चला तो और भी गुस्सा होंगे। ऐसा हरगिज नहीं हो सकता। रिश्तेदारी मे हमारी बड़ी थू थू होगी।

 विजय के देखे हुये ख़्वाब पलभर मे ही टूट कर बिखर गए थे।  वो अगले दिन अपनी ड्यूटी के लिए निकल चुका था । जाते वक़्त उसने अंकुर के घर की तरफ देखा ,अंजना बाहर ही खड़ी उसे देख रही थी । वो बुझे मन से शहर की तरफ चल पड़ा। अंजना की नजरे देर तक उसका पीछा करती रही।  

 वक़्त गुजरता रहा। 2 साल तक विजय घर नहीं आया। अचानक माँ तबीयत खराब होने की खबर सुनकर वो घर आ गया। कुछ दिनों बाद माँ की तबीयत मे कुछ सुधार हुआ तो उसकी माँ ने कहा,”बेटे मेरी अब तबीयत खराब होने लगी है तूँ शादी करले ताकि घर मे बहू आ जाए और वो घर का काम संभाल ले ताकि मुझे बुढ़ापे मे कुछ आराम मिले।

माँ और पिताजी के लगातार दवाब के चलते विजय ने बुझे मन से हाँ कर दी।

विजय की शादी हो गई।

शादी के बाद  दुल्हन और दुल्हन के परिवार वालों ने कह दिया की वो गाँव मे नहीं रहेगी ,विजय के साथ शहर में ही ही रहेगी।
 
बेटे , अपने साथ ही ले जा कुछ दिन के लिए , बाद मे हमारे साथ रह लेगी बहू। “, विजय के पिताजी ने कहा।

उसकी बूढ़ी माँ की आँखों से आँसू लुढ़ककर चेहरे की झुर्रियों मे जज़्ब हो गए।

 
पाँच साल गुजर गए। विजय पत्नी के साथ शहर मे रहने लगा था।  उसकी  पत्नी ने गाँव जाने से साफ साफ मना कर दिया था। हालांकि विजय गाँव आता जाता रहता था। पत्रों के जरिये माँ बाप की खैरियत के समाचार मिलते रहते थे। अंकुर की शादी का कार्ड मिला मगर ऑफिस मे जरूरी काम के चलते गाँव नहीं जा सका।

 देखते देखते और 2 साल गुजर गए। विजय इस दौरान गाँव नहीं जा सका। आज खत मिला की  माँ की  फिर से तबीयत खराब रहने लगी है । उसने ऑफिस में छुट्टी के लिए बोल दिया और सुबह की गाड़ी से अकेला ही गाँव के लिए निकल गया।

गाँव पहुँचकर चारपाई पर लेटी अपनी माँ के पास जा बैठा। माँ का हालचाल पूछने लगा।  

बहू नहीं आई बेटे ? “,विजय की माँ ने गर्दन घूमकर पूछा ।
विजय ने ना मे गर्दन हिला दी।
“कोई बात नहीं बेटे, उसका गाँव मे दिल नहीं लगता होगा
तभी एक महिला ट्रे मे चाय और कुछ नमकीन बिस्कुट लेकर आ गई।
विजय की माँ ने कहा , “चाय ले लो बेटे। “

“बेटे ये अंकुर की बीवी है ,तूँ तो उसकी शादी मे आ नहीं पाया था। ये बेचारी रोज रोज  काम मे हाथ बंटाने आ जाती है । बहुत सुशील और शालिन बहू हैं। अपने सास ससुर का बहुत ख्याल रखती है।  मेरा भी बहुत ख्याल रखती है ।“

विजय ने  ट्रे से चाय का कप उठाते हुये गर्दन उठाकर चाय लाने वाली महिला को देखा तो चौंक पड़ा।

“अंजना  !”

 

-विक्रम

 

  

     

 

 

 

 

 

 

 

 

  

 

 

 

 

Saturday, 27 February 2016

पुरानी यादें


हमारे गाँव के बहुत से  परिवार खेतों मे जाकर बस गए जिसकी वजह से गाँव उजड़ा उजड़ा सा नज़र आता है । हमारे घर के पास (चित्र में) ये मामराज लंबोरिया (चौधरी) का घर है । मामराज और गंगाराम दोनों भाई थे जिसमे मामराज बड़ा और शादीशुदा था जबकि गंगाराम ने  शादी नहीं की थी,या नहीं हुई थी पता नहीं । गंगाराम मे एक खास बात थी की वो रोजाना शराब पिते था मगर किसी को पता तक नहीं चलता था । गाँव मे किसी के घर से कच्ची शराब पीकर अपने घर आता और अपनी बिछी हुई चारपाई पट बैठ जाता , मामराज के बेटे बिना कहे ही उसे वहीं खाना दे देते। गंगाराम आराम से खाना खाते और तान के सो जाते। मैंने कभी उन दोनों भाइयों को लड़ते नहीं देखा। गंगाराम हालांकि मामराज के लड़कों को धमका देते थे,मगर कभी किसी ने पलट कर जवाब नहीं दिया। आज तो पैदा होते ही बच्चे माप-बाप को जवाब दे देते हैं।

बचपन मे हम लोग इनके अहाते मे और घर के सामने बने चौक मे देर रात तक खेलते थे। हम जब ज्यादा हल्ला मचाते तो गंगाराम एक आवाज लगाते और हम सब बच्चे डर कर दूर भाग जाते, बाद मे जब गंगाराम सो जाते तो हम फिर से खेलने लगते। आज तो अगर कोई किसी के बच्चों को कुछ कह दे तो लोग मरने मारने पर आमादा हो जाते हैं । आजकल ये चौक सुनसान पड़ा रहता है और यहाँ एक बच्चा भी खेलता नज़र नहीं आता।

मामराज को सिर्फ एक शौक था , हुक्का पीने का । चौबीस घंटे हुक्के का पाइप हाथ में रहता था। उसके बेटे हुक्का ठंडा होने पर उसे फिर से भर देते और मामराज फिर से उसे गुड़गुड़ाने लगते । हम लोग जब थोड़े बड़े हुये तो हम भी कभी कभी मामराज के हुक्के को खींचने पहुँच जाते, हालांकि मामराज के हाथ से हुक्का बहुत कम छूटता था ।  

इस परिवार के मुखिया यानि मामराज की पत्नी जिसे पूरागाँव "पारो" कहता था । कहते हैं उसका असली नाम कुछ और था मगर वो "पार" गाँव की थी इसलिए पारो कहने लगे। गाँव मे किसी को अगर सिर-दर्द भी हुआ और पारो को पता चला तो वो उसके घर जाकर उसके हाल चल पूछने लगती, भले ही उसका घर गाँव के दूसरे छोर पर हो।  आज के दौर मे ऐसी इंसानियत देखने को नहीं मिलती। गाँव के हर व्यक्ति के दु:ख दर्द को पारो ने अपना दुख दर्द समझा ,कोई भी बीमार होता तो वो उसके घर के रोज चक्कर लगाकर हाल चाल पूछने चली जाती। वो गुगलवा गाँव की "मदर टेरेसा" थी। मगर जब वो खुद मरणासन्न हुई तो कोई हाल पूछने भी नहीं आया। 

मामराज और गंगाराम भी उसी दौर मे चल बसे । मामराज के पुत्र और पौत्र अपने खेतों के जाकर बस गए। अब उनके पीछे ये खंडहर हो चुका मकान जो आज तक अपने अंदर हमारे बचपन को समेटे हुये है।
“विक्रम”


Sunday, 24 January 2016

अनदेखा



वर्षों बाद अपने उस शहर मे,
सब अंजाने लोग मिले ,
तुम्हारे घर की दीवार से
पीठ टिकाये ,सिर झुकाये
कुछ पुराने दिन बैठे थे।
नहीं देखा मेरी तरफ ,
एक पल को भी उन्होने, 
शायद भूल गए मुझे ....वो भी.....
तुम्हारी तरह ।
नए मगर अंजाने लोगों ने भी
किया नज़रअंदाज़ सा  मुझे ,
मुझे !...!....!
खोजते रहते थे दो नैन जिसे,
सुबह से देर रात ढले,
बरसते अंधेरे में  खिड़की के
उस तरफ जलते दिये से....उसे,
आज हर एक ने किया
अनदेखा ।




"विक्रम"

 

 

Monday, 14 December 2015

निर्लज कोहरा


भीगी हुई सुबह को,
आगोश मे दबोचकर,
आतुर और उन्मादी
कोहरा,तल्लीनता से
संसर्ग करता है
 


खुमार मे अलसाई
सुबह  भी,
पड़ी रहती है
बेसुध- सी,देर तक
कोहरे के आगोश मे


भोर की किरणों
से शरमाकर भाग
खड़ा होता है निर्लज !
कोहरा ।


 

“विक्रम”

Saturday, 12 December 2015

तेरी दुल्हन

रोहित स्कूल से घर आया तो अपनी माँ के पास  काफी देर से एक खूबसूरत युवती को बैठे देखकर

पूछा, ये कौन है माँ ?

माँ उसके मनोभावों को भांपते हुये मुसकराकर बोली ,”तेरी दुल्हन

रोहित शरमाकर दूसरे कमरे मे चला गया ,युवती भी शरमाकर रोहित को जाते हुये देखने लगी।
 

शालिनी पड़ोस के घर मे अगले हफ्ते होने वाली एक शादी मे शामिल होने आई थी। रोहित को जब पता चला तो वो स्कूल से आते ही पड़ोस के घर मे अपने दोस्त निखिल के पास किसी न किसी बहाने चला जाता। निखिल से पता चला वो उसके मामा की बेटी है ।
  
रोहित जब भी निखिल से मिलने आता , शालिनी भी किसी न किसी बहाने उन दोनों के पास आ जाती। रोहित और शालिनी छुपकर एक दूसरे को देखते रहते ।
 
तेरी दुल्हन , माँ के कहे ये शब्द रोहित और शालिनी को बरबस ही मुस्कराने पर मजबूर कर देते। धीरे धीरे दोनों ने एक दूसरे से औपचारिक बातचीत शुरू की । शादी की भीड़भाड़ से बचने के लिए वो छत पर चले जाते। देर तक बातें करते रहते।
 
शालू !, किसी ने पुकारा तो शालिनी उठते हुये राहुल का हाथ पकड़कर चुटकी बजाते हुये हँसकर  बोली, ”जाना मत , मैं बस यूँ आई ।कहते हुये नीचे की तरफ दौड़ गई ।
 
शादी का दिन नजदीक आ चुका था , मेहमानों की भीड़भाड़ के चलते दोनों युवा मिलने की जगह तलाशते रहते थे।
 
आखिरकार शादी का दिन भी आ गया और दुल्हन की विदाई का भी । दुल्हन की विदाई के दूसरे दिन मेहमान भी जाने लगे और उनके साथ ,रोहित की "दुल्हन" भी विदा होने लगी। रोहित एक तरफ खड़ा शालिनी को अपने रिश्तेदारों के साथ जाते हुये देखता रहा। शालिनी की निगाहें रोहित को तलाश रही थी।
 
नजरें मिली ,दोनों की आँखों में नमी साफ देखी जा सकती थी।
 
वक़्त गुजरता गया । मगर रोहित शालिनी को नहीं भुला पाया। वो शालिनी का इंतज़ार करता रहा। साल-दर-साल गुजरते गए । उसने शालिनी के प्रति अपने आकर्षण का जिक्र किसी से नहीं किया , यहाँ तक की अपने दोस्त निखिल को भी कुछ  नहीं बताया । पढ़ाई पूरी करने के बाद रोहित को एक सरकारी नौकरी मिल गई। नौकरी लगने के बाद रोहित की माँ ने शादी के लिए लड़कियां देखनी शुरू की मगर रोहित किसी ना किसी बहाने टालता रहा। वो माँ को नहीं कह पाया की माँ , मेरी दुल्हन तो आपने बचपन मे ही तलाश ली थी ,फिर अब किसकी तलाश है ? “
 
सरपट दौड़ते वक़्त के एक हादसे में उसकी माँ भी चल बसी । पिता तो बचपन मे ही चल बसे थे। सालभर मे एक बार शहर से अपने गाँव आता तो निखिल के घर जरूर जाता। निखिल की माँ से उसे अपनी माँ सा प्यार मिलता था। निखिल की माँ भी उसे शादी करने को कहती रहती मगर वो हँसकर टाल देता।
 
अब चालीस को पार कर चुका , फिर क्या बुढ़ापे मे शादी रचाएगा ?”, निखिल की माँ डांटकर कहती।
 
कर लूँगा काकी , अभी कौन सी जल्दी है”, वो बीमार सी हंसी हँसकर बात को उड़ा देता।

 वक़्त खिसकता रहा......बीस साल पुरानी यादें उसके गाँव आते ही ताज़ा हो जाती। आज फिर रोहित करीब दो साल बाद अपने गाँव आया। अपने घर की साफ सफाई करवाकर वो निखिल के घर की तरफ बढ़ गया। वो जब भी गाँव आता खाना निखिल के घर ही खाता था। काकी उसे निखिल की तरह प्यार से खाना खिलाती ।
 
काकी को देखकर रोहित ने चरण-स्पर्श करके काकी का आशीर्वाद लिया और बरामदे मे रखी कुर्सी पर बैठ गया। काकी भी उसके पास बैठ गई और बातें करने लगी। तभी घर के अंदर से एक युवती आई जिसे देखकर रोहित उठ खड़ा हुआ और बोला ,”शालू !
 
युवती ने रोहित को देखा और फिर काकी की तरफ देखकर बोली ,”हाँ दादी माँ , आपने बुलाया ।
 
अरे हाँ,बेटी ये रोहित है निखिल का दोस्त , तुम इसको चाय नाश्ता दो तब तक मैं बगल वाली आंटी से आम का अचार लाती हूँ ,इसको बहुत पसंद है । काकी उठकर बाहर चली गई  
 
आप बैठिए, मैं बस यूँ लाई”, युवती ने रोहित की तरह देखते हुये हँसकर चुटकी बजाई खिलखिलाती हुई  घर के अंदर चली गई।
 
रोहित बूत बना खड़ा सोचता रहा , उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। 
 
काकी पड़ोस से आ चुकी थी। तब तक युवती भी चाय लेकर आ गई तो रोहित ने युवती की तरफ इशारा करते हुये पूछा ,”काकी ये ..... ?
 
बेटा ये निखिल के मामा की बेटी, शालिनी की बेटी है।  बिलकुल माँ पर गई है। मुझे “दादीमाँ “ कहती है । मगर अभागी है , इसके जन्म के वक़्त ही शालिनी की मौत हो गई थी ।
 
रोहित के कानों में सीटियाँ बजने लगी, वो भारी कदमों से अपने घर लौट आया । अपना सामान उठाकर जैसे ही शहर जाने के लिए घर से बाहर आया सामने उस युवती को खड़े देखकर सकपका गया।
 
तुम ?, रोहित से पूछा ।
 
दादी माँ आपको खाने के लिए बुला रही है ।

नहीं ,मुझे अचानक जाना पड़ रहा है , आंटी को बोल देना ।
 
युवती रोहित के साथ साथ चलने लगी। ,“आपने मेरी मम्मी को देखा था ? कैसी दिखती थी वो ?”
 
रोहित अपने आंसुओं को रोकता हुआ शहर जाने वाले रास्ते की तरह बढ़ गया।


- "विक्रम"

 

Thursday, 3 December 2015

वक़्त

वक़्त
निरंतर रौंदें
जा रहा है ,
और ....मै ,
अविरल
निकालता रहता हूँ  ,
तेरी धूल-धूसरित
विदित-अविदित
यादों को ,
और रख लेता हूँ
सिलसिलेवार
ज़हन में ।

वक़्तऔर,
 मेरे दरमियाँ,
चलता रहता है ये खेल
अविच्छिन्न ....
अविरत ....
अनवरत ....

"विक्रम"
 

Wednesday, 25 November 2015

मुद्दे


जुगालियाँ करते हैं लोग  ,
मुद्दों की दिन-रात,
आदि हो गए है चबाने के,
कोई एक जन,
किसी के हलक से,
तो कोई
अखबार की कतरनों से,
उठा लाते हैं ताज़ा या बासी मुद्दे ,
और उछाल देते है
हवा मे,
छीना-झपटी के दरमियाँ,
बदल जाते हैं मायने मुद्दों के ।
दमदार दलीलें
बदल देती हैं,
मुद्दों के अभिप्राय !


"विक्रम"

शादी-विवाह और मैरिज ।

आज से पचास-पचपन साल पहले शादी-ब्याह की परम्परा कुछ अनूठी हुआ करती थी । बच्चे-बच्चियाँ साथ-साथ खेलते-कूदते कब शादी लायक हो जाते थे , कुछ पता ...