Saturday 23 November 2013

वक़्त


वक़्त आज भी उस खिड़की 
पे सहमा सा खड़ा है

भुला कर अपनी
  
गतिशीलता की प्रवर्ती

जिसके दम पर
 
दौड़ा करता था... सरपट
 
और...

फिसलता रहता था मुट्ठी 
में बंद रेत की मानिंद ।


शामें भी उदासियाँ ओढ़े
,
बैठी रहती है उस राहगुजर के
 
दोनों तरफ
, जिनके दरमियाँ  
मसलसल गुजरती
  रहती  हैं 
स्तब्ध
, तन्हा ,व्याकुल  रातें

अलसाई-सी भौर
 
भी अब
रहती है ऊँघी
, बेसुध,अनमनी-सी

वो उन्माद भी मुतमईन-सा है
   
जो बेचैन
,बेसब्र सा रहता था 
धूप से नहाई दोपहरी मे ।


 
- “विक्रम”

13 comments:

  1. बहुत खूब ... गुज़रते हुए भी ठहरा रहता है वक़्त किसी के लिए ... उदासी ओढ़े ... स्थिर हो जाता है सब कुछ उस वक़्त ...

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  2. वक़्त आज भी उस खिड़की पे...... सहमा सा खड़ा है........ बहुत सुंदर रचना .

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  3. वक्त आज भी उस खिड़की पर सहमा सा खड़ा है बहुत सुंदर रचना

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  4. bahut hi komal bhav liye ati sundar rachana...
    :-)

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  5. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
    नई पोस्ट तुम

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  6. वक़्त की अपनी गति है ...कभी ठहरी सी कभी बहुत तेज़.... सुंदर रचना

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  7. वो उन्माद भी मुतमईन-सा है
    जो बेचैन,बेसब्र सा रहता था
    धूप से नहाई दोपहरी मे ।

    वाह !!! प्रकृति को समेटकर लिखा मन के भीतर का सच
    बहुत सुंदर रचना
    बधाई ------

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  8. बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...

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  9. बहुत खूब ! शानदार रचना !!

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  10. रचना अच्छी बन पडी है

    कुछ जड़ी बूटियों को घड़े में हल्दी के साथ बंद करके मैंने एक दवा तैयार की है जो बुढ़ापे के असर को अस्सी प्रतिशत तक कम कर देगी ,नये बाल उग जायेंगे ,टूटे दांत भी निकल सकते हैं हड्डियों और जोड़ों के सारे दर्द गायब हो जायेंगे। अगर आपको चाहिए तो फोन कीजिये मुझको।

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  11. बहुत उम्दा भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
    नयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी

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