वक़्त आज भी उस खिड़की
पे सहमा सा खड़ा है,
भुला कर अपनी
गतिशीलता की प्रवर्ती ,
जिसके दम पर
दौड़ा करता था... सरपट और...
फिसलता रहता था मुट्ठी
में बंद रेत की मानिंद ।
शामें भी उदासियाँ ओढ़े,
बैठी रहती है उस राहगुजर के
दोनों तरफ , जिनके दरमियाँ
मसलसल गुजरती रहती हैं
स्तब्ध, तन्हा ,व्याकुल रातें
अलसाई-सी भौर भी अब
रहती है ऊँघी, बेसुध,अनमनी-सी ,
वो उन्माद भी मुतमईन-सा है
जो बेचैन,बेसब्र सा रहता था
धूप से नहाई दोपहरी मे ।
- “विक्रम”
पे सहमा सा खड़ा है,
भुला कर अपनी
गतिशीलता की प्रवर्ती ,
जिसके दम पर
दौड़ा करता था... सरपट
फिसलता रहता था मुट्ठी
में बंद रेत की मानिंद ।
शामें भी उदासियाँ ओढ़े,
बैठी रहती है उस राहगुजर के
दोनों तरफ , जिनके दरमियाँ
मसलसल गुजरती रहती हैं
स्तब्ध, तन्हा ,व्याकुल रातें
अलसाई-सी भौर भी अब
रहती है ऊँघी, बेसुध,अनमनी-सी ,
वो उन्माद भी मुतमईन-सा है
जो बेचैन,बेसब्र सा रहता था
धूप से नहाई दोपहरी मे ।
बहुत खूब ... गुज़रते हुए भी ठहरा रहता है वक़्त किसी के लिए ... उदासी ओढ़े ... स्थिर हो जाता है सब कुछ उस वक़्त ...
ReplyDeleteवक़्त आज भी उस खिड़की पे...... सहमा सा खड़ा है........ बहुत सुंदर रचना .
ReplyDeleteवक्त आज भी उस खिड़की पर सहमा सा खड़ा है बहुत सुंदर रचना
ReplyDeletebahut hi komal bhav liye ati sundar rachana...
ReplyDelete:-)
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteनई पोस्ट तुम
वक़्त की अपनी गति है ...कभी ठहरी सी कभी बहुत तेज़.... सुंदर रचना
ReplyDeleteवो उन्माद भी मुतमईन-सा है
ReplyDeleteजो बेचैन,बेसब्र सा रहता था
धूप से नहाई दोपहरी मे ।
वाह !!! प्रकृति को समेटकर लिखा मन के भीतर का सच
बहुत सुंदर रचना
बधाई ------
बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत खूब ! शानदार रचना !!
ReplyDeleteरचना अच्छी बन पडी है
ReplyDeleteकुछ जड़ी बूटियों को घड़े में हल्दी के साथ बंद करके मैंने एक दवा तैयार की है जो बुढ़ापे के असर को अस्सी प्रतिशत तक कम कर देगी ,नये बाल उग जायेंगे ,टूटे दांत भी निकल सकते हैं हड्डियों और जोड़ों के सारे दर्द गायब हो जायेंगे। अगर आपको चाहिए तो फोन कीजिये मुझको।
बहुत उम्दा भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी
सुंदर !
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