Friday, 17 October 2014

वो दिन

जब गाँव जाता हूँ तो उस चौक को देखता हूँ जहां बचपन मे हम आस पास के 10 घरों के बच्चे देर रात तक खेलते थे , हल्की सर्दियों मे देर रात तक लुका-छिपी (ढायला) खेलते थे। आस पास के घरों मे जाकर छिप जाते थे। सर्दियाँ बढ़ जाने पे चद्दर को पट्टी की तरह सीने से बांध लेते थे ताकि दौड़ते वक़्त उसको संभालना ना पड़े। चौक के किनारे के घरों के सामने चबूतरे पे अलाव (धुणी) जलाकर बड़े बुड्ढे बैठकर हुक्का या चिलम पीते हुये देर रात तक बातें करते रहते थे, और बीच  बीच मे हम लोगों  को  ज्यादा शोर ना मचाने की चेतवानी भी देते रहते थे जिसे हम पलभर के लिए मान भी लेते थे। ।  

मगर आजकल .....!  बिलकुल सुनसान सा  पड़ा है वो चौक, आस पास के कुछ घर खेतों मे जाकर बस गए , कुछ नौकरी पैसा के लिए शहरों मे चले गए तो साथ मे अपने परिवार को भी अच्छी शिक्षा के लिए लेते गए। सुने पड़े घरों के सामने बने चबूतरे भी अपना अस्तित्व नहीं बचा पाये। उन घरों के करीब सभी  बड़े बुड्ढे भी भगवान को प्यारे हो गए। अब तो रात मे उस चौक मे बैठने से भी डर सा लगता है , वहाँ ना बच्चों की चिल्लपों है और ना ही बुजर्गों की डांट-डपट या मिट्ठी झिड़की।  

शाम ढलते ही इक्का दुक्का बच्चे अपने घरों मे दुबक जाते हैं। घरों के दरवाजे भी अंधेरा घिरते ही बंद हो जाते हैं, और इसके बाद  सुबह तक मरघट सी ख़ामोशी छा जाती है।

विक्रम

Saturday, 13 September 2014

वसीयत

उम्र के उन खास 
लम्हों की वसीयत, 
मैंने अतीत की तहों मे
समेटकर रखी है, 
गाहे बगाहे, 
यादों की चिमटी से 
परतों को उठाकर, 
देख लेता हूँ  की कहीं, 
उसमें कोई
इजाफ़ा तो नहीं हो रहा ..... 
मुझे इजाफ़ा नहीं, 
ख़ालिस वसीयत चाहिए
उम्र के 
उन खास लम्हों की
ख़ालिस वसीयत
ख़ालिस  !

-"विक्रम"

Sunday, 17 August 2014

बस पाँच मिनिट !

हमारी कंपनी मे एम.डी  (MD) जापानी होता है , क्योंकि इंडिया और जापान की दो कंपनियाँ इसमे शामिल है । कोंट्रेक्ट के मुताबिक एम.डी तीन साल रहता है फिर दूसरा एम.डी आता है । एक बार एक एम.डी आया तो उसने देखा की हम लोग  जो कमिट्मन्ट  (प्रतिबद्धता ) करते उसे ये कहकर करते की ,"सर , बस पाँच मिनिट में कर देंगे , सर बस दो मिनिट में, आदि आदि। जैसा की ये दो मिनिट , पाँच मिनिट  हमारा तकिया कलाम होता  है  उसे जापानी  सच  मान लेते  और जैसे ही दो मिनिट या पाँच मिनिट होता वो स्टेट्स पूछने
 लगता:)।

उसके बाद तो वो जैसे ही कोई दो या पाँच मिनिट बोलता तो वो झट से पूछता
,"इंडियन फाइव मिनिट ऑर जापानीज फाइव मिनिट ?"

फिर तो वो बात बात पे इंडिया को लेकर मज़ाक बनाने लगा । दो साल बीत जाने पे जब जापान से उसका "360 डिग्री फीडबैक फॉर्म" हमें मिला  तो हम लोगों ने उसे काफी नेगेटिव मार्क्स दिये। उसके बाद जापान से उसे  हमारे फीडबैक का फीडबैक मिला तो उसकी हालत खराब हो गई ।                                                                                  

उसने हमारी मीटिंग बुलाई और उसका कारण पूछा , हम “देशभक्तों” ने उसे बता दिया की हम अपने देश के बारे मे कोई भी नेगेटिव टिप्पणी सहन नहीं कर सकते। उसके बाद उसने तौबा कर ली और कभी वैसा कॉमेंट नहीं किया। खैर जो भी हो , हमे भी अपनी आदत सुधारने का मौका मिला और उसके बाद हम सही समयावधि का वादा करने लगे।

Sunday, 29 June 2014

मेरी तन्हाइयां

मुद्दतों पहले
तुम्हारा आना,
और ,
लम्हे भर मे
चले जाना ,
बिखेर कर
यादों के
ढेर से
महीन टुकड़े
मेरी तन्हाइयों में,
जो अक्सर
नश्तर से
चुभते हैं,


मौसम के साथ
वो टुकड़े
बदलते रहते हैं
आकार अपना ,
और
बढाते रहते हैं
दर्द की
इन्तेहाओं को ,
और जब,
वो दर्द
लांघता हैं
हदों की हदें
तब कहीं जाकर
मिलता है
सुकून मेरी
तन्हाइयों को ।



“विक्रम”



Sunday, 15 June 2014

मुनिया

( सत्य घटना पे आधारित । पात्रों के नाम बदल दिये गए हैं )


(चित्र गूगल से साभार ).
कुम्हारों के मुहल्ले मे हाहाकार मचा हुआ था। पूरे कुम्हार जाति  के लोग अपने अपने घर की छतों पे खड़े होकर तमाशा देख रहे थे । आज मासूम मुनिया के ससुराल वाले उसको लेने आए थे , मगर मुनिया और उसके घरवाले इसके लिए राजी नहीं थे ,क्योंकि मुनिया के  साथ उसकी ससुराल मे पशुओं जैसा व्यवहार किया जाता था । उसे मारा पीटा जाता था और पूरे दिन घर के कामों मे लगाए रखते थे। एक दिन मौका पाकर  वो ससुराल से भागकर अपने मायके आ गई।  उसके बाद उसके ससुराल से काफी बार उसका पति और ससुर उसे लिवाने आए मगर मुनिया ने जाने से माना कर दिया । बहुत बार पंचायत भी हुई मगर कोई नतीजा नहीं  निकला। आज अचानक उसके ससुराल के करीब 50 आदमियों ने उसके घर पे धावा बोल दिया , उसके माँ-बाप को बुरी तरह से मारा। उसका छोटा भाई डर के मारे पड़ोस के घरों मे जाकर छुप गया था।

 
जब गाँव के एक ठाकुर युवक सजन सिंह को घटना का पता चला तो अकेला ही उनसे लड़ने निकल पड़ा। पास के घरों की छतों से मुनिया की ससुराल वालों पर पत्थर बरसाने शुरू किए। जिस से घबराकर उन्होने मुनिया के माँ बाप को मारना छोड़ दिया मगर मासूम मुनिया को बालों से घसीट कर बाहर गली मे ले आए।   इसके बाद उन्होने अपने साथ लाए ऊंटों में से एक ऊंट पर मुनिया को पेट के बल बोरे की तरह बांध दिया। तभी सजन सिंह छत से कूदकर हाथ मे लाठी लिए उनके आगे खड़े हो गये ।सामने पचास आदमी थे और सजन सिंह अकेले , मगर वो गाँव की बेटी के साथ ऐसा अन्याय नहीं देख सकते थे। उन्होने कहा ,' जबर्दस्ती तो लड़की को नहीं ले जाने दूंगा और इस हालत में बांधकर तो हरगिज भी नहीं ले जाने दूंगा।  हमारे गाँव की लड़की आपको ब्याही है मगर इसे इज्जत के साथ लेकर जाओ। बहुत देर गरमा-गरमी के बाद  उन्होने लड़की को खोल दिया और उसको बैठाकर ले गए।

 
सजन सिंह जानते थे की वो लोग लड़की को वहाँ लेजाकर बहुत बुरी हालत मे रखेंगे, इसलिए एक दिन छुपकर वो चुपके से उसकी ससुराल पहुँच गए। मुनिया की ससुराल वाले खेत मे घर बनाकर रहते थे । सजन सिंह की एक जान पहचान का मुनिया की ससुराल में मिल गया जिसके माध्यम से मुनिया तक समाचार पहुंचाए गए। मुनिया बहुत दुखी थी।  एक दिन योजना के तहत सजन सिंह मुनिया को रात मे चुपके से अपने साथ ले गाँव ने आए और उसके माता पिता को सौप दिया। उसके बाद कुछ दिनों तक मुनिया को रिस्तेदारों के यहाँ छुपा कर रखा गया । उसके बाद एक लंबी कानूनी लड़ाई के बाद मुनिया का तलाक करवा दिया। आज उस घटना को चालीस साल बीत चुके हैं।  मुनिया ने दुबारा शादी नहीं की। ठाकुर सजन सिंह आज इस दुनिया मे नहीं हैं मगर मुनिया आज भी उनके उस उपकार को भूली नहीं है । मुनिया अपना जीवन अपने बूढ़े माँ-बाप और भाई के परिवार के साथ बड़े मजे से गुजर-बसर कर रही है । गाँव के सभी लोग उसे अपनी बेटी की तरह मानते हैं। घर के अन्य कामों में अपना हाथ बंटाकर मुनिया ने अपने आप को व्यस्त रखा। उसने सिलाई मशीन को अपनी जीविका का माध्यम बनाकर कभी अपने आप को किसी पर  बोझ नहीं बनने दिया।

 
मुनिया और उसके परिवार वाले आज भी अक्सर सजन सिंह को याद करके भावुक हो जाते हैं। हालांकि कुछ कुम्हार जाति के लोग मुनिया को वापिस उसकी ससुराल भेजने के हक़ मे थे , लेकिन सजन सिंह ने मुनिया की इच्छा जाननी चाही तो मुनिया ने कह दिया की में नहीं जाऊँगी। उसके बाद सजन सिंह ने सालभर बहुत परेशानी के बाद उस लड़की को उन  जुल्मों से मुक्ति दिलाई जो उसे पूरी उम्र मिलने वाले थे।

 

“विक्रम”

Saturday, 24 May 2014

मौसम

मौसम की करवटों
के दरमियाँ, तेरी यादों
से विह्वल लम्हे  ,
आँखें मलते हुये
जाग उठते हैं
चिर-निद्रा से।
 
चुपके से मैं,
कुछ भूले हुये से लम्हों
को ,वक़्त की
हथेली पर रखकर,
याद करने लगता हूँ
उन लम्हों के जन्म
के वो पल ,
जो अब असपष्ट से हैं
मेरे मानस पटल पर ।
 
कुछ खास लम्हे ,
मुझे देखते ही मुस्कराने
लगते हैं , मै बेबस सा
उनकी मासूम सी
मुस्कराहटों के जवाब में
मैं, बस मुस्करा देता हूँ
दबाकर आंदोलन
आँसूओं का   
“विक्रम”
 
 
  
 
 
 
 
 
 
 
 

Sunday, 11 May 2014

दस्तक !!

वो तुम्हारी पहली
दस्तक !!
मुद्दतों बाद आज भी,
जगा देती है
सुसप्त तन्हाइयों को ...
जिंदगी का एक
वो हिस्सा जो
तेरे पहलू मे गुजरा ,
बहुत भारी रहा
बाकी जिंदगी पे ।
नीरस  रहा दौर
बाकी जिंदगी का ,
तेरे साथ गुजारे उन  
चंद लम्हों को छोड़कर....
तुमसे मिलना,  
एक पड़ाव था,
ज़िंदगी का
बाद उसके सफर ,
बहुत  तन्हा ही गुजरा....
वैसे भी , है क्या जिंदगी में,
उन चंद मुलाक़ातों के सिवा.....
 

“विक्रम”

शादी-विवाह और मैरिज ।

आज से पचास-पचपन साल पहले शादी-ब्याह की परम्परा कुछ अनूठी हुआ करती थी । बच्चे-बच्चियाँ साथ-साथ खेलते-कूदते कब शादी लायक हो जाते थे , कुछ पता ...