सन 2003 मे मैं कंपनी के काम से पहली बार दक्षिण भारत (मद्रास चैन्नई) आया था। उस दिन ट्रेन अपने निर्धारित समय से करीब 2 घंटे लेट थी। रात के करीब 10 बजे थे तो मैंने सोचा पहले खाना खाया जाए फिर कोई होटल तलाशता हूँ । स्टेशन से बाहर आकर सामने ही कुछ दूरी पर एक रेस्टोरेन्ट मे चला गया। अंदर ज्यादा भीड़भाड़ नहीं थी बस दो चार लोग ही बैठे थे । मैंने एक खाली टेबल देखा और अपने समान को पास रखकर वेटर का ऑर्डर लेने के लिए इंतजार करने लगा। तभी एक लड़का आया उसने केले का बड़ा सा पत्ता सामने टेबल पर बिछा दिया और एक प्लास्टिक का छोटा सा पानी का गिलाश भी रख दिया। में कुछ कह पाता तब तक एक और वेटर आया और उस पत्ते के ऊपर चारों चारों तरफ 4, 5 कोई सब्जी जैसी सामग्री प्रसाद स्वरूप जल्दी जल्दी रखी और जैसे आया था वैसे ही जल्दी से चला भी गया । मेरे संभलने से पहले एक और वेटर आया और उसने एक बड़े से स्टील के प्याले को अपने हाथ मे पकड़ी चावल से भरी बाल्टी मे डाला और चावल से लबालब भरकर उसे केले के पत्ते के बीचों बीच पलट दिया।
मैं मुँह खोल पता उस से पहले एक और वेटर आया और उसने एक जग जैसा कोई बर्तन अपने हाथ मे पकड़ी बाल्टी मे डुबोया और उसमे से सब्जी का ढेर सारा रस्सा (सांभर) चावलों पे पलट दिया जिस से पत्ते पर बाढ़ जैसे हालत पैदा हो गए। मैं जैसे तैसे करके सांभर के बहाव को चावल का बांध बनाकर रोकने की कोशिश करने लगा मैंने आस पास नजर घुमाकर देखा की कहीं कोई मुझे इस हालात से दो चार होते हुये देख तो नहीं रहा। पास मे बैठे दो चार लोग जो अपने रंग-रूप की वजह से पक्के मद्रासी लग रहे थे वो कलाई तक अपने हाथ को चावलों के ढेर मे घुसेड़ कर खाने का लुत्फ उठा रहे थे। मैंने बड़े दीन भाव से वेटर की तरफ देखा जो पहले से मेरी तरफ बड़े कौतूहल से देखे जा रहा था। मैंने मिन्नत सी करते हुये चम्मच मांगी तो उसने मुझे ऐसे घूरा जैसे मैंने उस से पैसे मांग लिए हों। वो इंकार मे गर्दन हिलाकर एक और को चला गया।
गाँव मे छोटे थे तब बड़े बूढ़े कहते थे की राजपूत लोग पत्ते (पत्तल) पे खाना नहीं खाते। लेकिन जहां बर्तन के नाम पे चम्मच तक नहीं हो वहाँ समझौता करने के सिवा कोई चारा नहीं रहता। मैंने कभी ऐसे चावल नहीं खाये थे। हमारे इधर (राजस्थान मे ) साल मे सायद 2 या 3 बार किसी त्यौहार पर ही चावल बनते हैं और वो भी घी और खांड (चीनी) के साथ खाये जाते हैं।
खैर हर तरफ से मायूस होकर मैंने सामने पड़े ढेर मे स्वाद तलाशना शुरू किया। चावल को सभी सब्जी जैसे दिखने वाले पदार्थों के साथ अलग अलग मिलाकर खाने में कुछ खाने जैसा टेस्ट परखने की कोशिश की। मगर काफी जद्दोजहद के बाद कुछ समझ नहीं आया तो आस पास बैठे लोगों को देखने लगा जो बड़ी तल्लीनता से चावल के ढेर को समेट रहे थे। मैं उनके खाने के तरीके की ऐसे नकल करने लगा जैसे परीक्षा हाल मे परीक्षार्थी करता है। काफी माथापच्ची के बाद पेट मे कुछ उतारने मे कामयाब रहा। मगर तभी सोचने लगा की इस पत्ता रूपी प्लेट को भी कहीं खाना तो नहीं है ? मगर तभी सामने देखा एक महाशय अपना खाना खत्म कर चुके थे और उन्होने अपने पत्ते को एक तह मे मोड़ा और टेबल पर रखकर खड़ा हो गया। मैंने भी तुरंत उसकी देखा देखी अपने पत्ते को फ़ोल्ड किया मगर तभी पास आकर एक वेटर बोल पड़ा। ‘सापड़ नल्ला एल्लुवा ?’( खाना अच्छा नहीं क्या ?)। मेरी समझ नहीं आया तो उसने टूटी फूटी हिन्दी मे दोहराया। मैंने कहाँ , “अच्छा था।“ फिर उसने कहा की अगर खाना अच्छा लगे तो पत्ते को अपनी तरफ फ़ोल्ड करते हैं और अच्छा ना लगे तो दूसरी तरफ फ़ोल्ड करते हैं।
इस से पहले की कुछ और गलती हो जाए मैंने जल्दी से काउंटर पर पेमेंट पूछा था पता चला खाने का बिल था सिर्फ 12 रुपए। मैंने भुगतान किया और होटल तलाशने निकल पड़ा।
हहहहहः दादा खूब गड़के लिखा हे आपने सापाट के बारे में बहुत खूब सापाट नला इले आ हाहाहा
ReplyDeleteबहुत सुन्दर बात कही है आपने .एक सार्थक सन्देश देती प्रस्तुति आभार . मुलायम मन की पीड़ा साथ ही जानिए संपत्ति के अधिकार का इतिहास संपत्ति का अधिकार -3महिलाओं के लिए अनोखी शुरुआत आज ही जुड़ेंWOMAN ABOUT MAN
ReplyDeleteगनीमत है वो पत्तल थी उसकी जगह खाने को कोई आइटम नहीं था|
ReplyDeleteएक बार एक अंग्रेज को राजस्थान के किसी गांव में बाजरे की रोटी पर ग्वार की फलियों की सुखी सब्जी रखकर दे दी गयी, भूखे अंग्रेज ने फलियों सब्जी खाई और बाजरे की रोटी को प्लेट समझ फैंक दी !!
Jeevan ke kuch kisse waakai yaadgar hoye hai...
ReplyDeletejeeva mein kuch kisse waakai yaadgaar hote hai
ReplyDeleteपेट मे भुख लगे तो सुखी रोटी भी मेवा लगता है दादा तो इस सापाट ने तो आपकी पेट की भुख तो मिटा दी ना
ReplyDeleteअब हमारे पास भी हमारे दोस्त श्री पी.एन. सुब्रमनियन जी से पूछने के लिये एक वाक्य तो हो ही गया "सापड नल्ला एल्लुवा?"
ReplyDeleteबहुत रोचकता पूर्वक लिखा आपने, शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (10.06.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर किया जायेगा. कृपया पधारें .
ReplyDeleteअच्छा लगा
ReplyDeleteए तो खूबी है अपने देश मिएँ जितनी जगह उतने खाने और भाषाएँ ... पर फिर भी विविध अनुभव ... रोचक संस्मरण ...
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