Wednesday 10 April 2013

गुड़गाँव बनाम गुड़शहर

पिछले एक हफ्ते से गुड़गाँव में हूँ.  ये वो गुड़गाँव है  जो पिछले एक दशक से इतना विकसित हो गया की दस साल पहले यहाँ आए इंसान को आज दुबारा यहाँ आने पर वो पुराना गुड़गाँव नहीं मिलेगा। यहाँ एक से एक बड़ी कंपनी और एक से एक बड़ी और आलीशान गगनचुंबी  इमारतों की लंबी कतार लगी है । हमारी कंपनी का गेस्ट हाउस एक 18 मंज़िला इमारत (यूनि वर्ल्ड सिटि) में हैं, जिसमे हर फ्लोर पर 16 मकान हैं ,लेकिन बावजूद इसके वहाँ सायद ही किसी मकान से किसी की आवाज सुनाई देती हो।
 सब कुछ शांत , किसी को किसी से बात करने तक की फुर्सत नहीं। ऐसा लगता है जैसे यहाँ इंसान घरों मे नहीं "पिंजरों" में रहते हैं  जो अल-सुबह खाने की तलाश में उड़ जाते हैं और रात घिरते घिरते एक एक
...“जहां बड़ी बड़ी कंपनियाँ और आलीशान अपार्टमेंट होंगे वहाँ बड़े बड़े शॉपिंग कॉम्प्लेक्स और बड़े बड़े शोरूम कूकरमुत्तों की तरह रातों-रात पैदा हो जाते हैं।  
  करके उन पिंजरों मे बंद हो जाते हैं । बगल वाले मकान में कौन है ? कितने आदमी हैं , हैं भी या नहीं ? किसी को कुछ लेना देना नहीं। सुबह और शाम को देर रात तक सड़कों  पे इन्सानों की रेलमठेल लगी रहती है जो दोपहर होने से कुछ पहले और शाम ढलने से कुछ पहले के समय कम होती है ।
 जहां बड़ी बड़ी कंपनियाँ और आलीशान अपार्टमेंट होंगे वहाँ बड़े बड़े शॉपिंग कॉम्प्लेक्स और बड़े बड़े शोरूम कूकरमुत्तों की तरह रातों-रात पैदा हो जाते हैं।

 ये बदलाव ही असल मे महंगाई की मुख्य वजह है। ऐसे परिवर्तनों से आम आदमी दब कर रह जाता है और अपने आपको बहुत असहज महसूस करने लगता है। बड़े ब्रांड के शो-रूम जहां आम आदमी के लिए कोतूहल का विषय है वहीं धनी लोगों के लिए पैसे खर्च करने का जरिया मात्र । आलीशान रिहायशी घरों मे रहने वाले लोग एक साथ डाइनिंग टेबल पर बैठकर शायद ही कभी खाना खाते होंगे , वो तो बाहर पीज़ा, बर्गर या नूडल्स खाते हुये मिलेंगे या फिर देर रात तक पार्टी या किसी क्लब मे, जो उनके लिए एक तरह की सामाजिक गतिविधिहै। 
 कहते हैं की पड़ौसी ही पड़ौसी के काम आता है”, लेकिन यहाँ तो पड़ौसी पड़ौसी को ही नहीं जानता , और तो और एक ही परिवार के लोग कभी कभी कई कई दिन के बाद मिल ही पाते हैं। किसी के पास किसी से मिलने या दो बात करने तक का वक्त नहीं। फिर ये इतनी भागदौड़ जद्दोजहद किस लिए ?
 
आने वालों कुछ सालों मे शायद गुड़गाँव का नाम बदलकर गुड़शहररखना पड़े।


“विक्रम” (11-04-2013)

11 comments:

  1. अब देखा जाये तो खुद आम आदमी स्वयं आम बनकर नहीं रहना चाहता और समय के साथ दौड़ लगाने पर उतारू है तो ये सब बदलाव भी तेज़ी ही लाएँगे। सबसे बड़ी बात ये की हवा सी गति जेसी दौड़ मे भी ये कहीं न कहीं अपनी मूल की मिट्टी की सुगंध महसूस करते ही है और थोड़ा सुकून भी पाने की कोशिश भी करते हैं।
    वास्तविक अभिव्यक्ति है hkm

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  2. आपकी रचना ने तो शहरो के रह्नसन का गुड गोबर कर के रख दिया है
    सुन्दर रचना

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  3. ये स्थिति किसी भी महानगर की है ... तेज़ी से भाग रहे हैं लोग ओर साथ साथ शहर भी ...

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  4. हर शहर का हाल यही है ....

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  5. हर महानगर का यही दर्द है...सार्थक प्रस्तुति...

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  6. शहरों का विकास हो रहा है पर सिर्फ और सिर्फ धनी लोगों के लिए गरीब के लिए यहाँ कोई जगह नहीं !!

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  7. गुरु ग्राम में सारे गुरु इकट्ठे हो लिए।

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  8. मैंने भी कई जगह महसूस किया है शहरों में लोग एक दूसरे से कटे कटे से रहते हैं,लोगों के पास समय ही नही है जान-पहचान करने के लिए.बहुत ही सार्थक आलेख.

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  9. परिवर्तन संसार का नियम हैं. मशीनरी जीवन से गाँवों का शहरीकरण !

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