बैठकर कुछ पल
इंतजार के सूने पहलू मेँ,
सिसकती शाम गुजर गई
छोड़कर तन्हा सुसप्त
तन्हाईयां।
बादलों से झाँकते चाँद को,
चंचल चाँदनी रातभर, खेलती हैं
अंधेरे के खंडित अस्तित्व से ।
मुस्कराती है मंद मंद और,
चिढ़ाती है अपाहिज अंधेरे को ।
पलभर को खोकर होशोहवास ,
हो गया हरण, बेसुध चाँदनी का ,
ले उड़ा उसे अंधेरा
दूर .....बहुत दूर....
इंतजार के सूने पहलू मेँ,
सिसकती शाम गुजर गई
छोड़कर तन्हा सुसप्त
तन्हाईयां।
शैशव अधेरा घुटनों के बल ,
रेंगता हुआ ताकता है डर से बादलों से झाँकते चाँद को,
चंचल चाँदनी रातभर, खेलती हैं
अंधेरे के खंडित अस्तित्व से ।
नवयौवना सी अल्हड़ चाँदनी
डालकर गलबहियाँ, चाँद को मुस्कराती है मंद मंद और,
चिढ़ाती है अपाहिज अंधेरे को ।
तरुण ज्योत्स्ना के मोहपाश मेँ
आलिंगनबद्ध चाँद, सो गया पलभर को खोकर होशोहवास ,
हो गया हरण, बेसुध चाँदनी का ,
ले उड़ा उसे अंधेरा
दूर .....बहुत दूर....
“विक्रम”
बहुत खूब दादा
ReplyDeleteनज़र चूकी तो क्या क्या हो जाता है ...
ReplyDeleteदरअसल नज़र भी नहीं ... किसी के मोहपाश का कसूर है ...
अच्छी रचना है ...
हो गया हरण बेसुध चांदनी का ...
ReplyDeleteबुराई का प्रतिक अँधेरा चाँद के ओझल होने का टकटकी लगाकर ओझल होने का इन्तजार करता है,और पल भर में ही अपना कब्जा जमा लेता है...सुंदर अभिव्यक्ति
बेहतरीन रचना.... आभार
ReplyDeleteबहुत सुंदर शब्द संयोजन
ReplyDeletewaah bahut mnmohak rachna ...
ReplyDeleteसार्थक और सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteसहजता से कही मर्म की बात
बधाई
आपके विचार की प्रतीक्षा में
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
jyoti-khare.blogspot.in
कहाँ खड़ा है आज का मजदूर------?
बहुत खूब
ReplyDeleteशानदार
ReplyDelete"चंचल चाँदनी रातभर, खेलती हैं
ReplyDeleteअंधेरे के खंडित अस्तित्व से ।"
आपकी इन पक्तियों मे आशा ओर निराशा के बीच का ध्वन्ध का
रमणिक चित्रण किया गया है
बहुत खूब...बहुत उत्कृष्ट मनभावन चित्रण...
ReplyDelete