Saturday 27 April 2013

अंधेरा

बैठकर कुछ पल
इंतजार के सूने पहलू मेँ,
सिसकती शाम गुजर गई  
छोड़कर  तन्हा सुसप्त
तन्हाईयां 


शैशव अधेरा घुटनों के बल ,
रेंगता हुआ ताकता है डर से
बादलों से झाँकते चाँद को,
चंचल चाँदनी रातभर, खेलती हैं
अंधेरे के खंडित अस्तित्व से ।
 
नवयौवना सी अल्हड़ चाँदनी
डालकर गलबहियाँ, चाँद को
मुस्कराती है मंद मंद और,
चिढ़ाती है अपाहिज अंधेरे को ।

तरुण ज्योत्स्ना के मोहपाश मेँ
आलिंगनबद्ध चाँद, सो गया  
पलभर को खोकर होशोहवास  ,
हो गया हरण, बेसुध चाँदनी का ,
ले उड़ा उसे अंधेरा
दूर .....बहुत दूर....

 
विक्रम”

 

11 comments:

  1. नज़र चूकी तो क्या क्या हो जाता है ...
    दरअसल नज़र भी नहीं ... किसी के मोहपाश का कसूर है ...
    अच्छी रचना है ...

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  2. हो गया हरण बेसुध चांदनी का ...
    बुराई का प्रतिक अँधेरा चाँद के ओझल होने का टकटकी लगाकर ओझल होने का इन्तजार करता है,और पल भर में ही अपना कब्जा जमा लेता है...सुंदर अभिव्यक्ति

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  3. बेहतरीन रचना.... आभार

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  4. बहुत सुंदर शब्द संयोजन

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  5. सार्थक और सुंदर प्रस्तुति
    सहजता से कही मर्म की बात
    बधाई

    आपके विचार की प्रतीक्षा में
    आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
    jyoti-khare.blogspot.in
    कहाँ खड़ा है आज का मजदूर------?

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  6. "चंचल चाँदनी रातभर, खेलती हैं
    अंधेरे के खंडित अस्तित्व से ।"
    आपकी इन पक्तियों मे आशा ओर निराशा के बीच का ध्वन्ध का
    रमणिक चित्रण किया गया है

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  7. बहुत खूब...बहुत उत्कृष्ट मनभावन चित्रण...

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