एक इंसान जिसने नैतिकता की झिझक मे अपने पहले प्यार की आहुती दे दी और जो उम्र भर उस संताप को गले मे डाले, रिस्तों का फर्ज निभाता चला गया। कभी माँ-बाप का वात्सल्य,कभी पत्नी का प्यार तो कभी बच्चो की ममता उसके पैरों मे बेड़ियाँ बने रहे। मगर इन सबके बावजूद वो उसे कभी ना भुला सका जो उसके दिल के किसी कोने मे सिसक रही थी। वक़्त उसकी झोली मे वियोग की तड़प भरता रहा………….
“कहाँ आसान है पहली मुहब्बत को भुला देना
बहुत मैंने लहू थूका है घरदारी बचाने में”
मुन्नवर राणा
(मैंने अपना ये लघु उपन्यास मशहूर शायर मुन्नवर राणा साहब के इस शे’र से प्रभावित होकर लिखा है । जहां एक इंसान अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाहण करते करते अपने पहले प्यार को अतीत की गहराइयों मे विलीन होते देखता रहा। मगर उम्र के ढलती सांझ मेन जाकर जब जिम्मेदारियों से हल्की सी निजात मिली तो दौड़ पड़ा उसे अतीत के अंधकूप से बाहर निकालने को....
“विक्रम” अगर पढ़ने में कुछ दिक्कत हो तो आप इस लिंक से भी पढ़ सकते हैं. खामोश लम्हे..
दिल को छु लेने वाली बहुत ही अच्छी,रोचक रचना.....
ReplyDeleteप्रेम और रिस्तो की बहुत अच्छी अभिवयक्ति.....
भावपूर्ण सुन्दर अभिव्यक्ति..आभार
ReplyDeletebahut hi khubsurat mujhe lagta hai ki aapne sabhi ke dil ki aawaz ko rachna me daal diya hai.
ReplyDeleteak dam satik haqikat......
भावनाओं की अनुभुति, संवेदना और उसकी अभिव्यक्ति कब कौन सा रूप अख्तियार कर लें और कहाँ विधा का अनुशासन मानने को इंकार कर दें, कहा नहीं जा सकता । पर किसी बारीक़-से-बारीक़ भाव को यदि रचनाकार पूर्ण और अधिकतम ईमानदारी के साथ लिखा जा सकता है ! बहुत सुन्दर
ReplyDeleteप्यार हमेशा किसी कोने में सिसकने के लिए अभिशापित है
ReplyDeleteRajpoot ji,
ReplyDeleteaapki rachna kinhi takniqui karno se pathniya nahi ho pa rahi hai. Aap mere blog par aaye, aapka dhanyavad.