Sunday 20 November 2011

वक़्त के अंधड़

नसीहत से सरोबर आवाज ,
पूर्वजों की...,
अकसर आती है..., जो ,
चोकस खड़े है,
आज भी.
उन वीरान खंडहरों के चहुँ और..,
....जिनको सींचा था ,
शाका और जौहरकी ज्वाला से..,
और बचाकर रखा था,
...ताकि सौंप सकें
भविष्य के हाथों में ...
और बचा रहे अस्तित्व ,
मगर आज .....?
लुप्त हो रहा है अस्तित्व ,
इन आँधियों में ,
सुनो ! ,

फिर एक रोबदार आवाज ,
....उन महलों से ,
आदेशात्मक सरगरोशी.... ,
जो कभी ,
सिहरन भर देती थी ,
दुश्मन के सीने में... ,
कहा ,
सुनो !
एक और शाका ...!
हाँ..... !
...करना पड़ेगा तुम्हे ... ,
ताकि.... ,
सनद रहे,
की तुम,
आम नहीं ,
खास हो ...,
निभा दो वो प्रथा..!
जो पहचान है हमारी ,
वरना....
खास से आम कर देंगे तुम्हे
ये वक़्त की अंधड़..!
"विक्रम"

6 comments:

  1. bahut achi lagi aapki likhi yah rachna ..behtreen abhiwykati hai

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  2. जो जाति समाज और धरम आपने इतिहास को भूल जाते है उसका सर्वनाश निश्चित है
    बहुत अच्छी कविता है आपकी ..........

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  3. kahne ke liye sabd kam pad rahe hai hukum

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  4. अतीत और वर्तमान का सुन्दर समावेश किया है

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