Sunday 27 November 2011

गाँवों की फेसबुक (ताश)



आजकल ताशबूक का चलन पहले की अपेक्षा काफी बढ़ गया है आज जिस तरह क्रिकेट सभी खेलों पर हावी हो रहा है उसी तरह ताश भी बाकि खेलों जैसे चोपड़,लूडो,शतरंज पर हावी हो चुकी हैं. चोपड़ बहुत पुराना खेल है , जो राजा महाराजाओं के दौर में चरम सीमा पे था , मग़र आज अपना अस्तित्व खो रहा है. मुझे याद है आज से करीब २० साल पहले हमारे गाँव में बुजर्ग लोग बहुत जोश खरोस से दिनभर चोपड़ खेलते थे. वक़्त के साथ साथ हर चीज बदलती है , मगर कुछ का खाली स्वरूप ही बदलता है और वो लम्बे समय तक अपने अस्तित्व में रहती हैं.

इस जद्दोजहद में ताश क खेल अपना अस्तित्व बचाए रखने कामयाब रहा इसका मुख्य कारण है भिन्न भिन्न प्रकार की पारियां जो इसमे खेली जाती हैं. पहले गिनती के तीन या चार खेल ही थे जो अक्सर खेले जाते थे. वक़्त के साथ साथ लोग उन खेलों से बोर होने लगे थे की अचानक एक क्रांति का आगाज हुआ और अनेकों नई नई तरह के खेल खेले जाने लगे

ऐसा नहीं की नए खेल आसमान से टपके थे , वो पहले भी थे ,मगर एक सिमित क्षेत्र में, वक़्त के साथ साथ यातायात के साधनों की बहुतायत ने दूरियों को कम किया और लोग एक दुसरे के जुड़ने लगे. कहते हैं खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है , ठीक उसी तरह हम भी एक दुसरे के रहन सहन , खान-पान से प्रभावित हुए एक दुसरे की देखा देखी परिवर्तन शुरू किये तो जिन्दगी में भी परिवर्तन का दौर चल पड़ा . आज ताश में ऐसे ऐसे नए खेल आ गए हैं की दिनभर उनके पास बैठे रहो मगर फिर भी भेजे में कुछ नहीं आयेगा. पहले के खेलों में रमी,फ़ीस,तीन-दो-पांच,रंग आदि काफी मशहूर थे जिनमे प्राय: दो,तीन या चार जन खेल सकते थे , मगर आज तो अकेला बंदा भी पूरी तन्मयता से खेलता हुआ मिल जायेगा. अब वो क्या खेलता है ये तो पता नहीं मगर जब तक कोई दूसरा निठल्ला ना मिले तो अकेले खेलकर थोडा अभ्यास करने में क्या हर्ज़ है .

गर्मियों में ताश का खेल अपने पुरे यौवन पर होता है ,चाहे कितनी ही गर्मी हो , कितनी ही लू चलें मगर ताश खेलने वाले पूरी श्रर्दा से खेलते हैं. खेल के दौरान घर से काफी बुलावे आते हैं , मगर "आता हूँ , अभी आया , तुम चलो में आता हूँ " कहकर फिर से ताश वंदना शुरू हो जाती है. खेल के दौरान सलाहकारों की भी भरमार रहती है , जो बिना मांगे सलाह की बौछारें फेंकते करते रहते हैं .

इस खेल में साम दाम दंड भेद , सभी हथकंडे अपनाये जाते हैं अपने साथी से गुप्त इशारों में ही हाथ मे पकडे पतों के ब्यौरे का आदान प्रदान हो जाता है कुछ नौसिखिये अक्सर पकडे जाते हैं तो दंडस्वरूप उनको फिर से पत्ते बाँटने जैसी सजा मिलती है. मगर सबकुछ इशारों में ही संभव नहीं होता तो ऐसे हालात में सलाहकारों से सलाह ली जाती हैं जरुरी नहीं की खुद के पास बैठे सलाहकार की मदद ली जाये , आप इशारों में सामने वाले के सलाहकार को भी पटा सकते हैं.
इस खेल का सबसे बड़ा फायदा है आपको किसी मैदान की जरुरत नहीं , बस बैठने भर की जगह मिल जाये तो पूरा दिन आराम से खेल खेल में रुखसत हो जाता है. वो बैठने भर की जगह चाहे ट्रेन,बस,मंदिर,सड़क,घर,खेत कुछ भी हो इस खेल में उम्र और समय कि कोई सीमा नहीं होती,क्योंकि इसमे जिस्मानी ताकत की जरुरत नहीं होती इसलिए आप कैसी भी उम्र और कद काठी के साथी के साथ खेल सकते हैं ..खेलता जा बाजियों पे बाजियां

"विक्रम"

6 comments:

  1. बेनामी28 November 2011 at 13:32

    भाई विक्रम सिंह जी
    ये ताश खेल ही एसा है कि बैठने मे मजबूर हो जाता है आदमी ;

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  2. राजस्थान मे बरसात नही होती है ना इस कारण गाव के लोग टाइम पास करते है भ्हुत सुन्दर
    लिखा

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  3. आज कल गाँवो मे यही एक टाइम पास का ज़रिया रह गया है खाली बेत्थे लोग इसी तरह अपना समय गुजारते हैं

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  4. बहुत सुंदर परस्तुति

    आभार !!

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  5. पोस्ट पढ़कर गाँव का मंजर याद आने लगा है.....
    जब भी गाँव जाना होता है लोगों को ताश में मशगुल देखकर समझाना पड़ता है लेकिन फिर वही ढ़ाक के तीन पात.....

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