Saturday, 15 February 2014

सभ्यताएं

उस दिन ट्रेन के आने में काफी समय था । इसलिए मैं वक़्त गुजारने के बहाने कुछ खाने-पीने को स्टेशन से बाहर आ गया । स्टेशन पर  खाने पीने की चीजों का स्वाद किसी से छुपा नहीं है । बाहर आकर मैंने इधर उधर की दुकानों पर नजर डाली और एक कैंटीननुमा चाय की उस दुकान की तरफ बढ़ गया जहां अन्य दुकानों की तुलना मे भीड़ कम थी ।  सामने ही कुछ कदम के फासले पर किसी कंपनी की बड़ी सी बिल्डिंग नजर आ रही थी। मैंने बैठते हुये अपने लिए चाय ओर कुछ खाने का ऑर्डर दिया । पास की टेबल पर चार पाँच युवक चाय की चुस्कीयों  के बीच सिगरेट के छल्ले उड़ा रहे थे। सड़क के उस तरफ बनी दो दुकानों के मध्य खाली जगह मे फँसकर खड़ी एक देहाती महिला अपने पल्लू की आड़ में छुपकर बीड़ी के कस ले रही थी ।


 
 मेरी चाय आ चुकी थी ओर में चुस्कियों के दौरान अपना वक़्त गुजारने लगा । कुछ समय पश्चात सामने की, कंपनी की बिल्डिंग से एक युवती  आती हुई नज़र आई । खूबसूरत चेहरे से युवती ही नज़र आ रही थी ,मगर उसका भारी भरकम शरीर उसे उसकी असली उम्र से काफी आगे ले जा रहा था। वक्षस्थल पेट के ऊपर  पेंडुलम की भांति दायें बाएँ झूल रहा था। आधी बाजू की टी-शर्ट से उसके  मोटे और गोरे  हाथ शरीर के बगलों से लटकते मांस  से संघर्ष करते हुये आगे पीछे झूल रहे थे, जिससे उसके भारी शरीर को आगे की तरफ धकेलने मे मदद मिल रही थी । उसके भारी भरकम पेट पर  कंपनी का आई-कार्ड  इधर से उधर यूँ भटक रहा था जैसे मेले मे घूम हुआ कोई बच्चा । आई-कार्ड  पर उसका नाम और ओहदा लिखा हुआ था, जिस से ज्ञात होता था की अच्छी पोस्ट पे कार्यरत है।

 
उसने आते ही दो Egg Puff ,एक कोल्ड ड्रिंक और एक सिगरेट खरीदा । सबसे पहले उसने एग-पफ़ को निपटाया और बाद में सिगरेट जलाकर कॉल-ड्रिंक के सिप लेने लगी।  बाएँ हाथ में सिगरेट और दायें मे कोल्ड-ड्रिंक की बोतल पकड़े वो बड़े सहज भाव से सिगरेट के लंबे लंबे कश लगा रही थी। पास ही खड़े युवक चोरी छिपे उसकी तरफ देखकर मुस्करा रहे थे। दो दुकानों के बीच की जगह में बैठी मजदूर महिला उसे बड़े कोतूहल से देखेते हुये  बीड़ी के कश ले रही थी 

 मैं  देहाती और शहरी सभ्यताओं का तुलनात्मक विश्लेषण करता हुआ स्टेशन की तरफ चल पड़ा ।

 
-विक्रम

 

Friday, 31 January 2014

अंगुलियाँ

कभी  साथ मिलकर
इन अंगुलियों ने
उकेरे थे ढेरों 
कोमल, स्नेहमय,मधुर
और मृदु शब्द ,उन
प्रेम पातियों पर,
हो उल्लसित होकर
लिखी जाती थी
हर दिन हर लम्हा
सिर्फ और सिर्फ
तुम्हारे नाम !

 

आजकल  मुझसे
उन अंगुलियों की
खटपट सी है , वो अब    
लड़ती झगड़ती रहती हैं
हर वक़्त, हर लम्हा
एक दूसरे से ,और
रहती हैं फुदकती
मोबाइल और कम्प्युटर
के कुंजीपटलों पर,
लिखने को अस्पष्ट
और भाव-विहीन  
मुख्तसर से हर्फ़
तुम्हारे नाम !


-विक्रम

Tuesday, 31 December 2013

सोचता हूँ नेता बन जाऊं !


एक मुहावरा है  "कीड़ा काटना " ये किसी  पुस्तक में है या  नहीं पता हीं  मगर जब कोई इंसान उलटे सीधे  काम करने  की सोचता है तो कहते हैं की उसको "कीड़ा काट"  रहा है।  खैर , में अपने  कीड़े  की बात बताता   हूँ । मुझे   कल ही ख्याल  आया की नेता बन जाऊं । अब ये  आपकी   नजर   में   कीड़ा काटना  हो सकता  है   मगर  मेरा ख्याल  था । नेता बनने  के लिए   लोगों के   वोट बटोरनादूसरा पायदान है ।  पहले पायदान के बारें में मैं निचे लिखूंगा । जहाँ   तक वोट बटोरने  बात है तो फेसबूक, गूगल+ वाहट्सअप्प्स  जैसे  निर्वाचन क्षेत्रों से 3000 दोस्तों का जुगाड़  करके रखा है ।  वैसे तो 3000 से ज्यादा है मगर सभी मेरे बहकावे में आयें ये भी तो जरुरी नहीं ।
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खैर जब नेता बनने का सोच ही लिया तो और वोटों का जुगाड़ भी हो  ही जायेगा । हर नेता को वोटों का  पहलेसे ही जोड़ भाग करके हिसाब रखना जरुरी होता है ।   क्योंकि यही एक पोस्ट है जिसकेलिए  ज्यादा पढ़े  लिखे होने की जरुरत नहीं और ना ही कहीं आपको अपना बायोडाटा भेजनाइंटरव्यू  में उटपटांग  सवालों का सामना करना। मगर ऐसा नहीं की कोई भी ऐरा गैर नाथू खैरा नेता बन सकता है , इसके लिए आप में बहुत कुछ औरों से हटकर होना चाहिए। एक सफल नेता बनने के लिए आप में न्यूनतम योग्यताओं का बेहद जरुरी है ।साथ में कुछ बहुमूल्य सुझाव भी बोनस स्वरूप प्रस्तुत  हैं ।


 १. एक दर्जन कोर्ट केस जिसमे चोरी-डकैती , हत्या, बलात्कार,और पाकेटमारी जैसी उपलब्धियां
    शामिल हों उसे विशेष  प्राथमिकता दी जाती है . 
२. इंसानियत या भलमनसाहत नामक हार्मोन्स  की आपके शरीर में सदैव कमी बनी रहना .
३. शराब और शबाब  आपकी शख्सियत के मुख्य केंद्र बिंदु होने चाहिए .
४.  हमेशा मुर्दे के कफन जैसे रंग वाले सफ़ेद कपडे पहनें , सिर में अन्ना टोपी जरूर लगाये ताकि  कोई
     मुर्दा समझ दफ़न ना करदे
५.  जहाँ भी जाएँ चमचों की फौज साथ में रखें , ये बहुत काम के प्राणी होते हैं, कबीर ने  भी इनकी
      सिफ़ारिश की थी  और कहा था की  "निंदक नियरे राखिये ..."
६. जो भी आपसे से खफा होंऔर लगे  की ये  आपकी दाल नहीं गलने देंगे तो सबसे पहले उन्हे पटाकर
     रखें,क्योंकि दुश्मनी जैसी आदत ना पालें।  क्योंकि ह्त्या जैसे केस मे  पकड़े जाने पर आपकी लुटिया
      जल्दी डूबने का डर बना रहता है ।  
७. नेता बनने से  पहले आपको तेल मालिश ,घूसखोरी ,दल-बदलूझूठे- वायदेफिजूल खर्ची  में चार
    साल  का  स्नातकोत्तर  पाठ्यक्रम पूर्ण करना अनिवार्य है ।

इन सबके अलावा भी हजारों खास ऐसे गुण  आप में   होने चाहिए  अगर आप के उच्च दर्जे के नेता बनने का शौक रखते हैं तो । खैर एक बार शुरुवात करेंगे तो ये गुण आप में  समय के साथ अपने आप आ जायेंगे । आप अपना करियर पहले एक  टपोरी और बादमें एक छुट या नेता के तौर पे शुरू कर सकते है। वैसे भी आजकल काफी युवा  इस "धंधे" की तरफ खिचे चले आ रहे हैं। इसका हालिया उदाहरण "आप" पार्टी वाले हैं ।  लेकिन आज इस व्यवसाय पर 80% खूसट बुड्ढे सांप की तरह कुंडली मारके बैठे हैं जो युवाओं को जगह नहीं दे रहे हैं 

लेकिन फिर भी आप परेशान  ना हों , क्योंकि   नेता   का   पहला   उसूल है की खुद कभी  परेशान ना ह हमेशा औरों को बराबर उंगली करके परेशान करे। वैसे नेता का कार्यकाल निश्चित नहीं है ,मगरकमाई के मामले में एक दो साल में ही करोडपती से अरबपती तक बना जा  सकता है | हाल ही के उदाहरण मेरे इसविचार की पुष्टि करते हैं ।  खैर जाने दीजिये बहुत हो गया , अब मतलब की बात पे आता  हूँ  " अपना अमूल्य वोट मुझे ही  दीजिये "
-विक्रम
    





   


Wednesday, 25 December 2013

याद आता है ....

हल्की गर्मियों की
शीतल अंधेरी भोर में
माँ का आँगन में
मेरे सिरहाने बैठना ,
अपनी मथनी बांधना ,
और दही से
मक्खन निकालना...... याद आता है

मंथन के  संगीत का
मेरे कानों मे
देर तक बजना  ,
आरोह अवरोह  
के दरम्यान  
मंथन की लय का
बनना बिगड़ना
और फिर छाछ पे
मक्खन का छाना...... याद आता है ।

मक्खन आने की
सुगबुगाहट पर ,     
माँ के पास बैठकर    
बिलोने मे झांकना
और फिर माँ का
मुस्करा कर,
ठंडी- ठंडी
मक्खन की डलियाँ
मेरे मुंह मे रखना ....... याद आता है ।


"विक्रम"


Saturday, 21 December 2013

तन्हा सा लम्हा

परछती के तिमिर
तन्हा से कोने मे
शिथिल श्लथ    
एक अधूरा सा लम्हा...
है प्रस्फुटन के लिए
व्याकुल सा...
 
जब कभी झुलसाती है
विरह की उष्णता
तब.. मुझे
पड़ता है  संभालना
रखकर    
तरबतर, चक्षुजल से,
उस अधूरे लम्हे को...
 
मेरे ख़्वाबों में लुप्तप्राय –सा  
वो अतीत   
वो नैसर्गिक लावण्य
वो उद्धत तरुणाई
स्पर्श को ललचाता    
मृदुल  कटि सौंदर्य ...
सब सोचकर है
हतोत्साहित लम्हा ।
 
-विक्रम

Saturday, 23 November 2013

वक़्त


वक़्त आज भी उस खिड़की 
पे सहमा सा खड़ा है

भुला कर अपनी
  
गतिशीलता की प्रवर्ती

जिसके दम पर
 
दौड़ा करता था... सरपट
 
और...

फिसलता रहता था मुट्ठी 
में बंद रेत की मानिंद ।


शामें भी उदासियाँ ओढ़े
,
बैठी रहती है उस राहगुजर के
 
दोनों तरफ
, जिनके दरमियाँ  
मसलसल गुजरती
  रहती  हैं 
स्तब्ध
, तन्हा ,व्याकुल  रातें

अलसाई-सी भौर
 
भी अब
रहती है ऊँघी
, बेसुध,अनमनी-सी

वो उन्माद भी मुतमईन-सा है
   
जो बेचैन
,बेसब्र सा रहता था 
धूप से नहाई दोपहरी मे ।


 
- “विक्रम”

शादी-विवाह और मैरिज ।

आज से पचास-पचपन साल पहले शादी-ब्याह की परम्परा कुछ अनूठी हुआ करती थी । बच्चे-बच्चियाँ साथ-साथ खेलते-कूदते कब शादी लायक हो जाते थे , कुछ पता ...