Friday, 15 February 2013

जज़्बात



बरसों बाद भी महफूज़ रखा है
तेरे  शहर ने बीते लमहात को  

उधर उस राहगुज़र
के दोनों किनारों पर
साथ-साथ चलते हुये
हम आज भी
अक्सर नजर आते हैं

एक दूसरे को अक्सर
कनखियों से देखना , फिर
नजरों का टकराना ....और  
मसलसल देखते जाना.....

बहानों की आड़ मे
मिलने के कवायत
और मिलने पर रोकती
समाज की रवायत

चलो फिर गुलजार करें
दिल के दरीचे को, जो
खिज़ा की आंधीयों से
जमींदोज़ हुये पड़े है

क्यों न हम फिर से   
जगाएँ उस अहसासात को
आज तुम कुछ हवा तो दो, 
मेरे जज्बाती खयालात को

 

/विक्रम/

 

8 comments:

  1. बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति

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  2. वाह...
    बहुत सुन्दर!!!


    अनु

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  3. चलो फिर गुलजार करें
    उस दरीचे को, जो
    खिज़ा की आंधीयों मे
    जमींदोज़ हुआ पड़ा है


    kyaa baat hai ....!!

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  4. चलो फिर गुलजार करें
    उस दरीचे को, जो
    खिज़ा की आंधीयों मे
    जमींदोज़ हुआ पड़ा है ......bahut khubsurat abhiwayakti.....

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  5. सार्थक और सभी हुयी पंक्तियाँ

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  6. वाह, बहुत ही लाजवाब रचना.

    रामराम.

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  7. भाई विक्रम जी अच्छी कविता |

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  8. बहुत ही लाजवाब रचना.

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