Saturday, 11 May 2019

शादी-विवाह और मैरिज ।


आज से पचास-पचपन साल पहले शादी-ब्याह की परम्परा कुछ अनूठी हुआ करती थीबच्चे-बच्चियाँ साथ-साथ खेलते-कूदते कब शादी लायक हो जाते थे, कुछ पता ही नहीं पड़ता थाबच्चे-बच्ची आज की तुलना में जल्दी 'मैच्योर' नहीं होते थे, बात-बात में उनका बचपन स्पष्ट झलकता था, बच्चियां अपनी शादी-सगाई की बात सुनकर शरमा जाया करती थी, पसन्द-नापसन्द का तो प्रश्न ही नहीं उठता था अधिकतर सगाई-सम्बन्ध काकी-भोजाइयों, बहन-भुआओं अथवा जान-पहचान वालों के द्वारा ही करवा दिए जाते थेऔर इसके अलावा कई बार लड़की के दादोसा, बाबोसा, पिताजी अथवा अन्य बड़ों के द्वारा भी सुयोग्य वर की तलाश में शेखावाटी से मारवाड़ और मारवाड़ से शेखावाटी में अपनी बहन-भुआओं के यहां जाकर आसपास के गांवों में भ्रमण कार्यक्रम रखे जाते थेभ्रमण के दौरान सगे-सम्बंधियों से खुलकर मज़ाक किए जाते थे
ऐसा माना जाता था कि मारवाड़ के लोग बड़े भोलेभाले और सीधे होते हैं जबकि शेखावाटी के लोग बड़े चालाक और डींग हांकने वाले होते हैं, जिनके भोलेपन और चालाकी के किस्से आज भी मशहूर हैंऐसे गोळ साफे वाले, लम्बी दाढ़ी वाले, जिनके कंधे पर लटकता 'खाखी थैला' मुझे आज भी याद आते हैं और जोर से खैंखारने वाले और किसी को भी चंग पर चढ़ाने और उतारने में माहिर अपने 'फेंकू' किस्म के बाबोसा भी याद आते हैं लड़के की योग्यता उसका खानदान और जमीन-जायदाद और लड़की की योग्यता उसके वंश-गोत्र और ठिकाणे की पैठ और गृहकार्य में दक्षता प्रमुख मानी जाती थी और आज की तरह रंग-रोगन, लम्बाई और साक्षात्कार इत्यादि गौण हुआ करते थेऐसा कहा जाता था कि 'भैंस ल्याणी नाणै की, ओर बहू ल्याणी ठिकाणै की ', 'बेटी नैं घर हाँण दे देणी, पण वर हाँण नीं देणी।।', 'रंग रो कांई देखणौ देख किरत अर काम'
सगाई कराने वाला मध्यस्थ केवल कुल इत्यादि की गारण्टी लेता था, टीका-दहेज़ तथा खातिरदारी इत्यादि लड़की वाला अपनी पैठ और प्रतिष्ठा के अनुरूप ही करता था, आज की तरह सौदेबाज़ी नहीं होती थी और इसीलिए उस समय तलाक, दहेज-हत्या, विधिक-प्रकरण इत्यादि पढ़ने-सुनने को नहीं मिलते थे'ब्याव' मंडते ही दोनों घरों में खुशी का माहौल छा जाता था, बान-बिन्दोरी की शृंखला ही शुरू हो जाती थीआज की तरह शादी के इनविटेशन-कार्ड अथवा निमन्त्रण-पत्र छपवाने का प्रचलन नहीं थापीले चावल की रस्म के साथ ही घर-परिवार और गाँव के लोगों को शादी की जानकारी हो जाया करती थी और उस के बाद ही वर-वधु पक्ष के लोग अपने प्यारे-प्रसंगियों को पीले चावल भेजकर अथवा दिखाकर शादी में आने का न्यौता दिया करते थे, पीले चावलों को ग्रहण करना ही न्यौते की स्वीकारोक्ति मानी जाती थीदूर के सगा-सम्बन्धियों को पोस्टकार्ड द्वारा सूचित किया जाता था, जिस पर शुभकार्य के निम्मित्त 'रोळी' के छींटे दिए जाते थे

शादी से महीने-सवा महीने पहले वर-वधु के लिए गोंद के लड्डू बनाकर खिलाए जाने का रिवाज़ तो कमोबेश आज भी है ताकि वे स्वस्थ दिखें। आवागमन के साधनों की कमी के कारण बारातियों की संख्या बहुत कम होती थी, आज की तरह लम्बा लवाजमा ले जाने की होड़ नहीं थीपास के रेलवे स्टेशन तक जाने के लिए ऊंटों अथवा बैलगाड़ी का इस्तेमाल किया जाता था। जिस गाँव में बारात जाती थी उसके आदर-सत्कार के लिए पूरा गाँव तत्पर रहता था। बारात को 'जान' कहा जाता थाबारातों को ठहराने के लिए आज की तरह शानदार होटलें अथवा मैरिज गार्डन नहीं होते थे, कई कई प्रमुख और बड़े गाँवों में धर्मशालाएं अवश्य थीं'जान का डेरा' किसी न किसी के घर अथवा अहाते में ही दिया जाता था, किन्तु आदर और आत्मीयता की कोई कमी नहींबारातें तीन तीन-चार चार दिन तक ठहरती थींबाराती अपना-अपना 'बींटा' (बेडिंग) साथ लाते थे, आज की तरह टेंट- हाउस नहीं थेघराती केवल चारपाई का ही प्रबंध करते थे। बैंडबाजे के स्थान पर ढोली और दमामी होते थे जो समयानुकूल 'बिरदावलियां' गाया करते थेआज तो 'तोरण-सियाळै' के समय बैंड वाला 'बुद्धू पड़ गया पल्लेपल्ले मेरे पड़ गया पल्ले-------' भी बजा दे तो कोई ध्यान नहीं देता और बियर पीकर बना लोग थिरकते रहते हैंउस समय मर्दों का खुलेआम नाचना अपवादस्वरूप ही देखने को मिलता था

वर (बींद) जब तोरण पर जाता था तब उसे फाइनल सिलेक्शन बोर्ड के सामने उपस्थित होना पड़ता था, कोई भुआ बनकर मिलने के लिए आगे बढ़ती थी तो कोई कान के पास जोर से पायल बजाती थी, कोई दर्पण दिखाती थी, वधु चावल के लड्डू की मारती थी, झिलमिल की आरती के साथ घूंघट में से सासू-माँ अपने होने वाले जंवाई को निहारती थी और अपने पति या ससुर इत्यादि के चुनाव के औचित्य को परखती थीइस 'बोर्ड' के सामने बड़े-बड़ों के हौसले पस्त हो जाया करते थेबारातियों को मीठी मीठी 'गाळियां' सुनने को मिलती थी आजकल नई जनरेशन उस समय भी अपनी 'फेसबुक' और 'व्हाट्सएप्प' पर अपनी सेल्फ़ी शेयर करने में मशगूल पाई गई है

जीमने में हलुवा, लापसी, चावल और खीर प्रमुख होते थे, कई बार दूसरे-तीसरे दिन मांसाहारी भोजन भी परोसा जाता था और इसके लिए बारातियों में से किसी को बकरे का 'झटका' करना होता था और इसमें असफल रहने पर झटका करने वाले को तिरस्कारस्वरूप 'लूगड़ी' (ओढ़नी) ओढ़ा दी जाती थीबाजोट पर बैठकर 'आरोगो सा' की मीठी मनुहार के साथ जीमने का आनंद ही कुछ और थाअब तो दादोसा-बाबोसा का किसी बारात में जीमना किसी अभिनंदन के सर्जिकल-स्ट्राइक से कम नहीं है 'जान-जुहारी' और 'प्याला' के पीछे परिचय जैसी अच्छी परम्परा रही है, जिससे वर-वधु पक्ष वाले आपस में एक-दूसरे से जान-पहचान बढ़ा कर निकट आते थे , यदि आज एक-दो महीने बाद बस या ट्रेन में वर-वधु के काकोसा या बाबोसा अनायास ही मिल जाएं तो हो सकता है वे एक-दूसरे को पहचाने ही नहीं क्योंकि आजकल परिवार की परिभाषा एकदम सिकुड़ गई है अतः अब इस 'प्याला-जुहारी' को बंद कर दिया जाना चाहिए


लेखक - मानसिंह शेखावत 'मऊ'

Friday, 8 February 2019

रिश्ता


हृदय  की
अगाध गहराइयों में,
पल्लवित है
एक बेनाम-सा
रिश्ता,  
जो अक्सर बगावती
तेवर दिखा ,
चाहता है कोई
नाम अपने लिए,
अब तुम ही कहो,
कहाँ संभव है इस
संवेगहीन दुनियाँ
में किसी को
अपना कहना....
"विक्रम"

Sunday, 3 February 2019

पुनर्जन्म


मैं,
तैरकर ना आ सका
हमारे दरमियाँ बहते
रिवाजों ,ऊंच-नीच
की लहरों ,समाज के
बंधनो के भँवर के उस पार....
मगर ,
मैंने तुम्हारी यादों की
एक नाव बना रखी है,
तुम बस  उस  पार
इंतजार की पतवार
थाम के रखना ,
इस जन्म का लंगर
खोल,  फिर लेंगे  
पुनर्जन्म .....



Wednesday, 15 August 2018

रिश्तों का आरक्षण


मकानो के मालिक
ओर उनके
किराएदार ,
कुछ उसी तरह
सिर्फ मालिक भर हूँ,
में अपने इस दिल का ,
बिना किराए के   
किरायेदार
बसते हैं इसमें,रिश्तों का
आरक्षण लेकर,
कुछ मियादी
तो कुछ
बेमियादी रिश्तों
की लीज़ लिए
बैठे हैं......
-विक्रम




Saturday, 21 July 2018

भाभी


भाभी जब घर मैं ब्याहकर आई थी उस वक्त मै करीब 4,5 साल का रहा होऊंगा। बड़े भाई आर्मी में थे, इसलिए भाभी अधिकतर समय हम लोगों के साथ परिवार में ही रही । दो-चार बार भाभी, भाई के साथ भी गई तो उस वक़्त मैं भी उनके साथ रहता था। भाभी के पहले 2 बच्चे जन्म के कुछ महीनों बाद ही चल बसे थे इसलिए उनका मुझ में बच्चे सा स्नेह था। 

मुझे आज भी याद है उन दिनों मैं ,भाभी ओर भाई बिहार के “गया” शहर में रहते थे उस वक्त मेरी उम्र 10,11 साल रही होगी। । मैंने भाभी को कभी “भाभी” नहीं कहा , न जाने क्यों। वो मुझसे काफी बड़ी थी ये संकोच था या ना जाने क्या कारण रहा होगा। एक दिन ऐसे ही खेलते खेलते दौरे मैंने भाभी को “मम्मी” कह दिया तो वो बहुत भावुक हो गई , बोली एक बार फिर बोलो। मेरे साथ खेलने वाले बच्चे जब अपनी घर में अपनी मम्मी को “मम्मी” पुकारते थे तो उस दिन मैंने भी बोल दिया।

उन दिनों का एक ओर किस्सा याद आता है । एक बार मैंने किसी बच्चे को पीट दिया था।  वो शायद आर्मी के किसी ऑफिसर का रहा होगा। घर आया तो भाई ने मुझे डांटा ओर थप्पड़ भी लगा दिया। मैने रोते हुये  अपने आपको बाथरूम में बंद कर लिया ओर देर तक रोता रहा ओर अंदर से ही रोते रोते भाई को कहता रहा की गाँव चलना माँ को बोलूँगा की मुझे मारा। कुछ देर भाभी ने बाथरूम का दरवाजा बजाया ओर कहा की बाहर आ जाओ कोई नहीं मारेगा... देखो तुम्हारे भाई भी रोने लगे हैं ..... मैं भाभी की आड़ लेकर बाहर आया तो देखा भाई भी रो रहे थे। उस दिन भाई ने मुझे पहली ओर आखिरी बार डांटा था , उस दिन के बाद कभी नहीं।

चार साल पहले भाभी हम लोगों को छोड़कर भगवान के पास चली गई। वो स्वभाव से बहुत हँसमुख थी , जिस महिला सी उन्होने दो मिनिट बात कर ली तो वो उनकी पक्की सहेली हो जाती थी। भाभी करीब सालभर से बीमार सी चल रही थी मगर उन्होने कभी किसी को एहसास नहीं होने दिया की वो बीमार हैं। उनकी हालत दिन-ब-दिन खराब होती रही ओर वो अस्पताल ना जाने के बहाने करती रही। दरअसल भाभी की नानी , माँ ओर भाभी की 3 छोटी बहनें देखते देखते ही क़ैसर  की शिकार हो चुकी थी, तो शायद भाभी को भी ऐसा ही कुछ डर लग रहा था की उनको भी क़ैसर है । मगर उनको क़ैसर नहीं था।  

धीरे धीरे उनका शरीर इतना कमजोर हो चुका था की वो पहचान में नहीं आ रही थी। एक बार व्हाट्सएप पर उनका फोटो देखा तो उनकी हालत का पता चला । मैं उन दिनों बंगलोर में था , घर पर बोला की उनको जबर्दस्ती अस्पताल लेकर जाओ। उसके बाद उनको अस्पताल लेकर गए जांच ए पता चला शुगर 400 को पार कर चुका था शरीर के काफी Internal organ damage हो चुके थे । दिल्ली के आर्मी हॉस्पिटल में 3,4 महीनों के इलाज के बाद अचानक वो अपने पीछे 3 बेटे 3 बहुएँ ओर 5,6 पौते-पोतीयां है छोड़कर इस दुनियाँ से चल बसी। मौत के आखिरी दिनों में ना मैं उनके पास था ओर ना भाई , क्योंकि भाई भी उन दिनों अपनी किडनी की बीमारी के लिए पुना गए हुये थे ओर मैं 10,15 दिन उनको देखने छुट्टी आने वाला था।
“राह देखा करेगा सदियो तक
छोड़ जाएंगे ये जहां तन्हा.....”
-विक्रम


    


Monday, 11 June 2018

कोई पुराना रिश्ता


अतीत के आले में
एक बेनाम-सा रिश्ता 
छुपाकर अपनों से
सहेज के रखा है वर्षों से...
मैं ताउम्र उसके लिए 
तलाशता रहा एक 
उपयुक्त सा सम्बोधन
ताकि पुकार सकूँ उसे...
मगर चाहकर भी,
आवंटित ना कर सका 
कोई सार्थक सा नाम,
और बस बैठाता रहा 
तारतम्य नामांकित 
और बेनाम-से 
रिश्तों के 
दरमियाँ 
उम्रभर..!

"विक्रम"


Saturday, 26 May 2018

बंदा ये बिंदास है !!




 आज से करीब 5,6 साल पहले फेसबूक पर एक शख्स के साथ एक सामाजिक मुद्दे को लेकर बहुत खिंचतान हुई। कई दिनों तक हम दोनों के बीच काफी कहासुनी होती रही। मुद्दा हालांकि एक कम्यूनिटी से संबन्धित था ओर हम दोनों उसी कम्यूनिटी के थे । मगर एक दूसरे के विचारों से सहमत नहीं होने से बड़ी गंदी वाली बहस हो गई थी । कुछ दिन बोलचाल बंद हुई , एक दूसरे को ब्लॉक किया । मगर दोनों ही एक ऐसे स्टेट ओर बिरादरी से ताल्लुक रखते थे जहां जानवर तक को आदर से पुकारा जाता है, ओर इसी के चलते हमारी बहस का स्तर गिरा नहीं था।

 
बाद मे हम दोनों ने एक दूसरे से बात की, एक दूसरे को समझा ओर मुद्दे को सुलझा हम दोस्त बन गए । ओर मजे की बात देखिये मुझे सालभर बाद पता चला को वो साहब पुलिस इंस्पेक्टर थे । खैर जब इतनी गर्मागर्मी हुई तो जाहीर है दोस्ती भी होनी ही थी । उसके बाद हम 3,4 बार काफी सारे FB फ्रेंड्स के साथ मिले हैं , अक्सर गेट-टुगेदर होता रहता है ।

इनकी खासियत है समय मिलने पर खूब सारे दोस्त ओर खूब सारी मस्ती करना। हालांकि ऐसी नौकरी मे इतने सारे दोस्तों के लिए समय निकालना काफी मुश्किल होता है , मगर ये अपने दोस्तों के लिए समय निकाल ही लेते हैं। ये एक ज़िंदादिल , बेफ़िकरे ओर बिंदास इंसान हैं ।

यायावरतखल्लुस के साथ बेहतरीन कवितायें भी लिखते हैं, तरन्नुम के साथ इनकी कवितायें सुनने का मजा ही कुछ ओर है, अक्सर कवि-सम्मेलनों के लिए वक़्त निकाल लेते हैं। राजपूतों के इतिहास पर भी बहुत अच्छी पकड़ है इनकी। जिस शहर मे रहते हैं वहाँ से जब इनका तबादला होता है तो वहाँ के लोग इनका ट्रान्सफर रुकवाने ओर अपराधी ट्रान्सफर करवाने के लिए पूरा ज़ोर लगा देते हैं । अक्सर चर्चा मे रहने वाले इन शख्स का नाम है महावीर सिंह राठौड़ है !, आजकल सीकर शहर के कोतवाल हैं ।

बशीर बद्र साहब का एक शेर याद आता है की ;
"दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुँजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिन्दा न हों "
                               

शादी-विवाह और मैरिज ।

आज से पचास-पचपन साल पहले शादी-ब्याह की परम्परा कुछ अनूठी हुआ करती थी । बच्चे-बच्चियाँ साथ-साथ खेलते-कूदते कब शादी लायक हो जाते थे , कुछ पता ...