Thursday, 17 September 2015

धुंधले पन्ने

अतीत के धुंधले पन्नो पे,
वो आधी अधूरी तहरीरें
आज भी  यथावत हैं ।

उन सिकुड़े सफ़ों पे
मुज़ाकरातों के कुछ अधूरे
सिलसिले भी दर्ज़ है ।

ज़हन से खरोंचे अल्फ़ाज़
ख़ामोशीयों के आगोश में
सिमटकर  बैठे हैं  

उफ़्क तक फैले सफ़ों में,
मुख़्तसर  मुलाकातों की,
इबादतों के असआर  गायब है ।

मुखतलिफ़  हिस्सों में
वस्ल की तिश्नगी पे हिज़्र की
सूखी स्याही  फैली है ।

आओ रखलें सहेजकर
इन्हे ,ज़हन के किसी
कोने मे तसव्वुर की तरह  

"विक्रम"

Saturday, 5 September 2015

वक़्त की परतें

वक़्त की मोटी परतों
को उठाकर देखना !
मासूम ख्वाबों की लाशों पे ,
तुम्हेंचीखते जज़्बात  मिलेंगे,
फफक कर सुबकती   
अधपकी मुलाकातें मिलेंगी,
वक़्त का कफ़न भी  
कुछ तार तार मिलेगा ,
अस्थिपंजर बन चुकी
पुरानी यादें भी मिलेंगी,
फफूंद लगे दिन और
बूढ़ी शामें भी मिलेंगी,
कब्र मे लेटी रातों के साथ
मरे हुये अबोध सपने भी मिलेंगे,
सलवटों भरे ताल्लुकात और
सूखे  अल्फ़ाज़ भी मिलेंगे

“विक्रम”

















Sunday, 23 August 2015

मिलन

स्टेशन से उतरते ही विजय ने बाहर आकर एक होटल मे अपना समान पटका और तेज़ कदमों से रेलवे की उस कॉलोनी की तरफ बढ़ने लगा जहां आज से 10 साल पहले रहता था। शहर काफी बदल चुका था । स्टेशन से रेलवे कॉलोनी तक का फासला तकरीबन डेढ से दो किलोमीटर है। उन दिनों यहाँ इतनी चहल पहल नहीं हुआ करती थी । सुनसान सी एक कच्ची सड़क हुआ करती थी । आज तो यहाँ रेलवे लाइन के साथ साथ एक सड़क भी बन गई है जिसपे वाहनों की अच्छी ख़ासी भीड़ हैं।
क्या रंजना और उसका परिवार आज तक उसी क्वार्टर मे होंगे ?,”विजय सोचता हुआ लगभग दौड़ता हुआ उस तरफ बढ़ा जा रहा था।

कॉलेज के दिनों मे यहाँ पढ़ने आए विजय को रंजना से प्यार हो गया था। दोनों एक दूसरे को घंटों निहारा करते मगर दोनों मे से किसी ने कभी इज़हार नहीं किया। वक़्त बदला और कुछ पारिवारिक दिक्कतों के चलते विजय वापिस अपने गाँव आ गया। वक़्त ने एक लंबी करवट ली और रंजना उस से बहुत दूर निकल गई। मगर पहला प्यार उसे रह रहकर याद दिलाता रहा की कोई आज भी उसके इंतज़ार मे हैं । दिल के हाथों मजबूर विजय के कदम आज यकायक  उसे यहाँ ले आए।      

विजय ने हाँफते हुये कॉलोनी मे प्रवेश किया। अब कॉलोनी को एक चारदीवारी से घेर दिया था,शहर की तरफ आने जाने का  वो कच्चा रास्ता कहीं गायब हो चुका था। पहले वो रंजना के घर के सामने से दो तीन बार गुजरा तो उसे एहसास हो गया की वहाँ अब वो लोग नहीं हैं। उस क्वार्टर मे और logही रहते लगे थे । उसके बाद वो अपने उस क्वार्टर की तरफ बढ़ गया जहां वो उन दिनों रहता था , हो सकता है उसके सामने वाले क्वार्टर मे रहने वाली रंजना की सहेली दुर्गा से रंजना के बारे मे कुछ खबर मिल जाए। मगर वहाँ भी उसके हाथ मायूसी ही लगी । दुर्गा और उसका परिवार भी वो मकान छोड़ चुके थे। उसके पहले प्यार की गवाह वो कॉलोनी आज वीरान हो चुकी थी । दिनभर यहाँ वहाँ भटकने के बाद भी उसे रंजना की कोई खबर नहीं मिली।

शाम होते होते वो निढाल कदमों से अपने होटल की तरफ बढ्ने लगा। उसके पैर उसका साथ नहीं दे रहे थे। कॉलोनी से करीब आधा किलोमीटर वापिस आते वक़्त वो काफी थक चुका था और वही रेलवे फाटक के पास सड़क के किनारे एक पुलिया की दीवार पर सुस्ताने बैठ गया। यहाँ पर अब आस पास काफी मकान बन चुके थे मगर उन दिनों यहाँ सुनसान कच्चा रास्ता हुआ करता था जिस पर कभी कभार कॉलेज आते जाते वक़्त उसकी रंजना से आँखें चार हो जाती थी । रंजना के साथ उसकी कुछ सहेलियाँ होती थी और वो उनसे नज़रें बचाकर विजय को निहार लेती और फिर थोड़ा मुस्कराकर और शरमाकर  नज़रें झुका लेती थी। बस यही प्रेमकहानी थी उनकी।  

शाम का धुंधलका घिरने लगा था।

तभी सामने से आती एक महिला को देखकर विजय को कुछ एहसास हुआ। एक पल महिला ने भी विजय को देखा। दोनों ने एक दूसरे को देखा और कुछ याद करने की कोशिश करने लगे।
“नहीं ये तो नहीं है “, विजय ने मन ही मन सोचा।

“रंजना...”
महिला ठिठक कर रुकी ।
“जी”
आ..आपका नाम रंजना है ?
“जी हाँ...आप .... विजय ?”

“हाँ...कैसी हो ? मेरा मतलब कैसी है आप ? ,विजय की आवाज भरभरा गई थी। दोनों ने पहली बार एक दूसरे की आवाज सुनी थी। आज आँखें खामोशी से बर्षों की पीड़ा बहा रही थी मगर जुबां से बर्षों की कमी पूरी कर रही थी ।  दोनों ने एक दूसरे से ढेरों बात की,गिले-शिकवों  का  लंबा दौर चला और फिर कल इसी वक़्त फिर से मिलने का वादा कर बर्षों के बिछुड़े प्रेमी एक दूसरे से फिर जुदा हो गए।
विजय रंजना को जाते हुये देखता रहा,रंजना ने पीछे मुड़कर विजय की तरफ हाथ हिलाया और पास के एक मकान मे चली गई।  विजय मुस्कराता हुआ अपने होटल की तरफ बढ़ गया।

दूसरे दिन विजय शहर मे घूमने निकल गया ,वो आज उन सारी पुरानी जगहों को देख लेना चाहता था जो उसने अपने कॉलेज लाइफ के समय देखा था। कॉलेज के सामने मदन चायवाले की दुकान भी गायब थी। कॉलेज के सामने की सड़क पर पंजाबी हलवाई की मिट्ठी लस्सी की दुकान अब एक अच्छे खासे रेस्टोरेन्ट मे बदल गई थी। शाम ढलने पर उसे रंजना से मिलना हैं इस विचार से वो रोमांचित था। मगर अभी शाम होने मे काफी समय था।  वक़्त गुजारने के लिए वो रेस्टोरेन्ट की तरफ बढ़ गया। अपने लिए एक कॉफी का ऑर्डर देकर वो एक खाली पड़े सोफा चेयर पर बैठ गया। रेस्टोरेन्ट मे ज्यादा भीड़भाड़ नहीं थी। पास की चेयर पर बैठे दंपति आपस मे बात करते हुये उसकी तरफ देख रहे थे।

“विजय भैया”, महिला ने पीछे मुड़ते हुये पूछने वाले अंदाज मे कहा ।
“हाँ..”,विजय ने चौंकते हुये जवाब दिया ।
मेँ.. दुर्गा , पहचाना...?”,महिला ने कहा ।
“अरे तुम, कितनी बदल गई हो । तुम्हारी शादी भी हो गई ?”, विजय ने मुस्कराते हुये पूछा।
“हाँ भैया, 2 साल हो गए । मगर आप कहाँ गायब हो गए थे। इतने सालों से आपकी कोई खबर ही नहीं “
“हाँ,मे कुछ बस ऐसे ही किनही हालातों मे फंस गया था। और बताओं तुम कैसी हो। घर मे सब कैसे हैं , तुम्हारे मम्मी-पापा ?”

“सब ठीक है भैया, आइये ना घर चलते हैं यहाँ से पास ही है। मम्मी अक्सर आपका जिक्र करती रहती हैं।“
“फिर कभी , आज रंजना से मिलने का वादा किया है । कल मिला था उस से ,काफी देर बातें हुई”,विजय से मुसकराकर कहा।
“क्या !”, दुर्गा ने चौंकते  हुये कहा ।
“हाँ”,विजय ने फिर मुसकराकर जवाब दिया।
“ले....लेकिन , रंजना तो.....”,कहते हुये दुर्गा खामोश हो गई और अपलक विजय को निहारने लगी। ,”कहाँ देखा आपने उसको ?

“वहीं , रेलवे फाटक के पास”, विजय ने जवाब दिया।
दुर्गा और उसके पति उठकर विजय  के सामने वाली चेयर पर बैठ गए।
“लेकिन भैया.....”, दुर्गा ने विस्फारित आँखों से विजय की तरफ देखा।
“लेकिन क्या ?,विजय ने पूछा।
“रंजना को तो मरे हुये 5 साल हो गए”,दुर्गा ने कहा । 
  “क्या.....!,क्या बात करती हो ? लेकिन मे तो कल मिला उस से , हमने घंटों साथ बैठकर बात की। , विजय ने सम्पूर्ण विश्वास के साथ कहा।
अब तक शाम होने लगी थी।

“चलिये हम  भी चलते हैं आपके साथ वहाँ ,जहां आपने कल उसे देखा। “,रंजना और उसका पति भी विजय के साथ रेलवे फाटक के पास बनी उस पुलिया की तरफ बढ़ चले।
काफी देर बैठने के बाद भी कोई नहीं आया तो विजय परेशान होने लगा। उसने दुर्गा को विश्वास दिलाने वाले अंदाज मे दोहराया की वो कल उस से मिला था। और वो उस सामने वाले घर मे चली गई थी।
“ चलो ना दुर्गा क्योंना हम उसके घर पर चलकर देखलें” ,विजय ने कहा।
“चलो”,दुर्गा ने कहा और तीनों  उस घर की तरफ बढ़ गए।

“आओ बेटी अंदर आओ”, दुर्गा को आया देख एक वृद्ध महिला काफी खुश हुई और उन्हे अंदर बैठाया।
“नमस्ते आंटी, कैसी है आप?”,दुर्गा ने पैर छूते हुये पूछा।
“ठीक हूँ बेटी”

काफी देर बातें हुई। बातों बातों मे रंजना का जिक्र आया तो वृद्ध महिला की आँखों मे आँसू बह निकले।
“रंजू के बिना ये घर खाने को दौड़ता है बेटी”,वृद्धा ने सुबकते हुये कहा।

बाहर आने पर तीनों उसी पुलिया पर बैठकर बातें करने लगे।
“वो रंजना की मम्मी थी”, दुर्गा ने कहा।

दुर्गा ने बताया की पाँच साल पहले उसी जगह एक एक्सिडेंट मे रंजना की मौत हो गई थी।
“वो आपको बहुत याद करती थी भैया”,कहते हुये दुर्गा सिसकने लगी।
विजय को दुर्गा की आवाज़ दूर से आती हुई महसूस हो रही थी।

उसकी स्तबद्ध आँखें  इधर उधर देखते हुये रंजना को ख़ोज रही थी।



   




  

Saturday, 15 August 2015

अधबुने ख़्वाब

वक़्त का बादल
फटकर गुजर गया
हम दोनों के दरमियाँ ..
ले गया बहाकर
अधबुने ख़्वाब और
दे गया अंतहीन दूरिया..
मगर....
तुम इंतज़ार मे रहना ,
में  आऊँगा,
एक दिन लौटकर,
लाऊँगा खोजकर
उन भीगे ख्वाबों को,
ख़यालात, जज़्बात,
और एहसासात की
आंच मे  सुखाकर,
हम फिर से बुनेंगे
वो अधबुने ख़्वाब....


“विक्रम”

Saturday, 13 June 2015

एक भीगा लम्हा

बारिश में भीगा
एक लम्हा, आकर पास मेरे,
अचानक लगा मचलने,
ऐसे ले गया मुझे खींचकर...,
खिलौने लेने की जिद्द पर
कोई बच्चा ले जाता है जैसे,
फिर वो लगा दिखाने मुझे
तुम्हारा वो पुराना घर...
सामने वाले मकान की
वो उजाड़ सी छत….
पीछे का वो सरकारी पार्क,
जहाँ तुम अक्सर,
घूमने के बहाने,सहेली के साथ,
चली आती थी मुझसे मिलने ।
पिछली गली में ,
मास्टर जी का वो आखरी मकान,
जहां पहली बार मिले थे हम ।
फिर लगा वो दौड़ाने मुझे,
स्कूल आने जाने की उस
पगडंडी पर जो अब
लुप्तप्राय-सी है , वहाँ अब एक
सड़क पड़ी है ,
जो रोज वाहनों से
अपना बदन छिलवाती है।
कोई और किराएदार आ गया है,
तुम्हारे घर के सामने वाले
उस मकान के कमरे मे,
जहाँ उन दिनों मे रहता था ।
उस खिड़की पर अब मच्छरों के लिए
किसी ने जालियाँ लगा दी है ।
अब कुछ नज़र नहीं आता ,
इसलिए शायद
देख नहीं पा रहे हम
एक दूसरे को.... बीते कई सालों से .....


"विक्रम"

Sunday, 15 March 2015

अजनबी

आज भी पहनकर रखा  है 
उन पुराने रिश्तों
का तार तार 
लिबास,तुम्हारे शहर ने । 

गली मे सिकुड़कर बैठा
मैला कुचेला सन्नाटा
अक्सर घूरता है मुझे
सूनी आँखों से ।

खामोशीयों को बगल में दबाये
एक बिखरा साया ,
तनहाईयां ओढ़कर
बहुत करीब से
गुजरता है ।

कुछ पुराने लम्हे
अतीत से हाथ छुड़ाकर
अक्सर चले आते हैं
करने ज़हन मे सरगोशीयां.....


"विक्रम"

Saturday, 6 December 2014

भूली-बिसरी

इंसान ज़िंदगी मे सबकुछ प्राप्त कर सकता है मगर उसे अपना बचपन कभी नहीं मिल सकता। अर्ध-शताब्दी गुजर जाने के दौरान अनेकों परिवर्तन हो जाते हैं और पूर्ण शताब्दी मे तो करीब करीब सब कुछ बदल चुका होता है, जिसके परिणामस्वरूप हम या आने वाली नई पीढ़ियाँ बहुत से घटनाक्रमों को भूल जाते हैं। तदुपरान्त एक नवीन सर्जन होता है मगर वो पूर्व से भिन्न होता है, और यही प्रकृति का नियम है यानि परिवर्तन।

मैंने अर्द्ध शताब्दी के दौरान जो भी देखा , (जो आजकल लुप्तप्राय है) उसे अपने गाँव की खड़ी बोली मे तुकबंदी के साथ लिख रहा हूँ , ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी जान सकें की इन 50 बरसों मे कितना कुछ बीत गया, कितना कुछ गुजर गया......
-*-
कठै गया बै गाम कठै गया बै नाम

कठै गया बै रिवाज कठै गया बै इंसान
दड़का भुआ , सरमण ताऊ
झुंवारा कुम्हार घोघड़ चमार
ऊदमी नायक हुकमा लुहार
गौरु महाजन , गणपत सुनार
गिन्ना नाई , ग्याना बाई
खुर्दड़ी ताई बिन बुलाई आई
तीन कुरड़ी तीन गाळ1
अगुणी खंधे की पाळ2
दो कुआ एक मंदिर
एक भोमिया एक खेत्रपाळ3
कच्ची ईंट ऊपरबंधी छान4
भीटकै5 की बाड़ न आस न जान
दूर कोई बाड़ों भेड़यां को रीवाङॊ6
आयो झरख7 वो करग्यों  कबाड़ों
खंदेह की माट्टी बाळू रेत

गोबर को लीपणो दूर दूर खेत
पाणी को पैंन्डो8 फुल्ला की इंडी9
गुलगुला सुहाळी बाजरे की पिंड्डी
लहसण की चटणी चनै को साग
पील की सिंडोरी चूल्हे की आग
भाट्ठे की चटणी गठिया रोटी

खाट्टे की राबड़ी झेरणी सूं घोट्टी
सिरै को पलटो खिचड़ी को चाट्टू
कैर को मूसळ सैर को लाड्डु

खींप की टाप्पी10 मुंज की खाट
खरसणै की हारी11 सैर को बाट
नाई हळ12, ऊंट का गिरबाण13
शक्कर घी जद आवै महमाण
कठै गई कास्सी की थाळी कठै गया बै इमरतबाण
कठै गया बै गाम कठै गया बै इंसान
-*-
धोती साफा चाम की जुत्ती
काना मे गुदड़ा खेस दुसत्ती
कड़ी नेवरी छैलकड़ा तागड़ी
गळ मे टेवटो माथे पै रखड़ी14
सांगरी को साग चौलाई की बुज्जी
घुन्दरै को रायतो खेलरां को सब्ज़ी15
भैंस को चाट झाड़ियाँ की बित्ती
बरूँ की भरोटी, बरसात आगीति

एक आनै की पट्टी एक पीसै को बरतो
डोवटी को कच्छो डोवटी को कुड़तो
दही खिचड़ी मोटी मळाई
चूँटियों घी दही अदबिलाई
कढावणी को दूध घाट को दळीयो
घी की मिरकळी दूध को पळीयो
मंगल वार बालाजी को बार
बाजरै को चूरमों दूध की खीर
शक्कर को परसाद घी को दियो
आग की ज्योत आंगळी को छींटों
ज्योत कोनी आई तो बुज्जा कढ़वाई
पित्तर की बताई पहरावणी पहराई
मावस धोकी, रात जगाई
बहू आई तीळ तागो ल्याइ
सुहाळी बँटवाई, खुशी मनाई
कठै गई बै तीळ दिखाई कठै गई बै आण-जाण
कठै गया बै रिवाज़ कठै गया बै इंसान
-*-
लाव और बरी पी ई और कछ
ढाणा कढ़ोई कुए की पाछ
गूण चिड़स और जुआ किल्ली16
कीलीया बारिया लोह की बिल्ली
गीरज कामळा हीरणा की डार
डोड काग फ़ौ-गादड़ी और सियार
टिड्डी दल काळा नाग और घेरा
ल्हिख जूं और बड़ा बड़ा ढेरा
बाज़ीगर की डुगडुगी और भोपां की फ
कानबेलिया की बीण और सावण की झड़
भजनी साँगी  और आल्हा गावणीया
भाट बांवरिया , डफ बजावणीया
कहाणी किस्सा, भूताँ की बात
धुणी पै सिंकता कटती रात
कठै गई बा ज़ोर की हांसी सब कीमै क्यों होग्यों सुनसान
कठै गया बै रिवाज़ कठै गया बै इंसान
-*-
देसी मुर्गी , फेरेडों  ऊंट
चातर लुगाई लायक पूत
हुड़िए गिंडी कबड्डी कुश्ती
माल्लों फूरो डंडा बित्ती
पींग पाटड़ी, सावण का गीत

भेळा होके झुलण की रीत
काठ की सन्दुक बटेऊ का गीत
घर को फळसो माट्टी की भींत
होळी की तैयारी डफ और ढ़ोल
झांझ मंजीरा और धमाल
खेल तमाशा, भरज्या चौक
नाचो गाओ, ना रोक ना टोक
गोबर का बड़कुल्ला, ढाल तलवार
पाणी का गैर कोरड़ा की मार
दादा-दादी, ताऊ और ताई
भाभी का कोरड़ा, देवरां की पिटाई
मीटग्या सब बैर, सारा भाई भाई
कठे गई बा होळी कठे गई बा डफ की तान
कठे गया बै गाम कठे गया बै नाम
कठे गया बै रिवाज़ कठे गया बै इंसान
-*-
दिवाळी का डीबला कातिक को न्हाण
टाबरां को हीड़ों बाजरै को खाण
जोगी खोपरा पान्नी का बात्ता
रपियाँ का ठीक, बही खाता
गीरड़ी को गाटो, दोड़ कुटाई
काकड़िया मतीरा, सिट्टा भुंदाई
कोट्ठी-कुठला, हारा चूल्हा
आजकल तो सब किमै भूल्या
आई सक्रांत रूस्सा-मनाई
बाड़ा-गतवाड़ा, एक कुट्टी ब्याई
दोळा-काळा पिल्लिया ल्याई
बाड़ कै नीचै एक घुर बणाई
घर घर करता चून उघाई
तेल को सिरो रोट पुवाई
सब गाळा की होगी सफाई
ताऊ नै मिल्या दो रपिया बोतल मँगवाई
कठे गयो बो जाड्डो कठे गयो बो सम्मान
कठे गया बै गाम कठे गया बै नाम
कठे गया बै रिवाज़ कठे गया बै इंसान

बुड्ढा की सेवा, लुगाइयाँ की शर्म

सूं-सौगंध और धर्म कर्म
मिट्ठी बोली बाताँ का धणी
हांसी-ठट्टा, मसकरी घणी
अपणा पराया सब बठ्या साथ
सब ही मानै हक की बात
साची गवाही साची जामनी
चाँद नै अर्क सूरज नै पाणी
कठे ग्या बै ब्या ओटणीय, कठे गई उनकी जबान
कठे गया बै गाम कठे गया बै नाम
कठे गया बै रिवाज़ कठे गया बै इंसान

-    आखिर मे मेरे गाँव में भाइयों का एक अजीब सयोंग देखने को मिला , जिसमे एक भाई शादी-शुदा और दूसरा कुँवारा रहता था। उनका नाम सहित वर्णन कुछ इस तरह है।

-*-
दो भाइयाँ को जोड़ो,
एक कूवारों एक ब्यायोड़ों
फत्तों-जगमाल, नारणों-पहलाद
सादुल-भादर, बालू-मेगो
टेक्कों-गोमद,चुन्नों-भूगानों
गंगाराम-मामराज,गिरधारी-नेतो
नैतो-मल्लो , दलसुख-प्रेमों
स्योपाल-चुन्नों, बंजी-नानजी
गोरधन-रामकार, पूर्णों-स्योपाल
कोई ग्यों कोई बचग्यों फेर ना देख्या ईसा मिलाण
कठे गया बै गाम कठे गया बै नाम
कठे गया बै रिवाज़ कठे गया बै इंसान

-भँवर सिंह शेखावत  ( ब्लॉगर के बड़े भाई )

 
अर्थ- 1-गली , 2- कच्चे तालाब का किनारा, 3-देवता , 4-झोपड़ी, 5-कंटीली झाड़ियां, 6-जहां भेड़ों को रखा जाता है, 7-भेड़िया, 8-जहां मटके रखे जाते हैं, 9-सिर पे पानी का मटका रखने के लिए बनाई गई कपड़े की छल्लानुमा इंडि, 10-एक झोंपड़ी जो राजस्थानी जंगली पोधे खींप से बनाई जाती है। 11-मिट्टी के बर्तन को लुढ़कने से रोकने के लिए बनाई जाने वाली हरी घास के पटसन जैसे पोधे (खरसना) की गोल छल्लेदार चीज जिसे हारी कहते हैं, 12-एक तरह का हल जो काफी गहराई तक जमीन मे पेवस्त होता है।, 13-ऊंट के नाक मे नकेल से बांधने के लिए डाले जाने वाला लकड़ी का गहनानुमा टुकड़ा। 14-आभूषणों के नाम, 15-बरसात मे अपने आप पनपने वाली हरी सब्जियाँ, 16-चमड़े के थैलानुमा झोले से ऊंट से कुए से पानी निकाला जाता था।   

शादी-विवाह और मैरिज ।

आज से पचास-पचपन साल पहले शादी-ब्याह की परम्परा कुछ अनूठी हुआ करती थी । बच्चे-बच्चियाँ साथ-साथ खेलते-कूदते कब शादी लायक हो जाते थे , कुछ पता ...